क्या आप जानते हैं नवरात्रि में कन्या पूजन कब शुभ होता है?

नवरात्रि में कन्या पूजन का चलन हिन्दू धर्म में देवी-शक्ति की श्रद्धा और सत्कार के रूप में बहुत प्रचलित है। परंतु “कब शुभ होता है” का सटीक उत्तर केवल एक ही तरीका बताकर नहीं दिया जा सकता—यह तिथि (तिथि = चंद्र पक्ष का दिन), स्थानीय पञ्चाङ्ग, पारंपरिक रीति-रिवाज और परिवार की परम्परा पर निर्भर करता है। कुछ स्थानों पर कन्या पूजन महा-अष्टमी (अष्टमी तिथि) में किया जाता है, कहीं महा-नवमी (नवमी तिथि) का दिन चुना जाता है, और कुछ जगहों पर शाम के समय ही कन्याओं को आमंत्रित कर भोग तथा आरती की जाती है। इस लेख में मैं उपलब्ध शास्त्रीय संदर्भों और क्षेत्रीय प्रथाओं का संक्षेप में उल्लेख करते हुए बताऊँगा कि आमतौर पर कौन‑सी तिथि और समय शुभ माने जाते हैं, किन बातों का ध्यान रखें, और यदि पञ्चांग में तिथि बदल रही हो तो व्यवहारिक उपाय क्या होते हैं। ध्यान रहे कि यहां दिए सुझाव सामान्य हैं; विशेष मुहूर्त के लिए स्थानीय पण्डित या पञ्चाङ्ग सलाह अनुपम होती है।
कन्या पूजन के लिए सामान्यतः शुभ तिथि
- अष्टमी (महा-अष्टमी) — कई क्षेत्रीय परम्पराओं में नवरात्रि की अष्टमी तिथि को सबसे उपयुक्त माना जाता है। इसे देवी की प्रमुख पूजा का दिन भी कहा जाता है और इसी दिन नौविध्यां में कन्या पूजन प्रमुखता से किया जाता है।
- नवमी (महा-नवमी) — पश्चिम बंगाल और कुछ अन्य स्थानों पर महा-नवमी को कन्या पूजन का मुख्य दिन माना जाता है। दुर्गापूजा के अवसर पर यह परम्परा विशेष रूप से प्रचलित है।
- स्थानीय विविधता — कुछ परिवार व इलाके सप्तमी या अयात्रा‑समारोह के बाद शाम को कन्याओं का सत्कार करते हैं। कई बार लोग ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार भी स्थानीय त्योहार के दिनो के अनुकूल रूप से निर्णय लेते हैं।
तिथि और समय कैसे तय करें (व्यवहारिक निर्देश)
- किसी भी धर्मकर्म की तरह यहाँ भी मुख्य मापदंड है तिथि का प्रभाव. सुनिश्चित करें कि पूजन का समय उस दिन की अष्टमी या नवमी तिथि के भीतर आता है। यदि तिथि बदलने का समय नज़दीक है (उदा. दोपहर में तिथि परिवर्तन), तो पण्डित या पञ्चाङ्ग देखकर तय करें।
- दिन का समय: प्रातः से अपराह्न (सुबह से शाम के पहले भाग) तक का समय सामान्यतः उचित माना जाता है। कई परम्पराएँ शाम को आरती के साथ पूजन भी करती हैं; इस स्थिति में देखें कि उस समय तिथि बनी हुई हो।
- राहु काल, यमगण्ड और अलग सूचनाएँ: पहलुई सिद्धांत के अनुसार शुभ कार्यों से बचने के लिये राहुकाल व अन्य अशुभ काल से बचें; परन्तु यदि परम्परा में शाम के समय कन्या पूजन पर ज़ोर है तो स्थानीय रीति सर्वोपरि रहेगी।
- पञ्चाङ्ग पर भरोसा: अंतिम निर्णय के लिये स्थानीय पण्डित या हिन्दी/संस्कृत पञ्चाङ्ग ही सटीक मुहूर्त बताएगा—विशेषकर तब जब तिथि मध्य में बदल रही हो।
कन्या पूजन की साधारण विधि (संक्षेप में)
- कन्याओं का चयन: आमतौर पर नाबालिग कन्याएँ (कन्यामूर्ति) आमंत्रित की जाती हैं; पर कई जगह युवा महिला‑आयु की कन्याएँ भी सम्मिलित की जाती हैं।
- स्वच्छता और सत्कार: कन्याओं को नहलाकर, साफ कपड़े और फूल‑हार देकर बैठाया जाता है।
- आराधन‑सामग्री: कुश/चन्दन की आसन, रोली/कुमकुम, चावल, फूल, दीप और प्रसाद की थाली।
- पूजा‑क्रम: चरण स्पर्श या चरण कमल में अचमन, तिलक/कुमकुम, फूल अर्पण, मंत्र‑भाव से अर्चना और अंत में भोग/प्रसाद प्रदान।
- दान/दक्षिणा: कन्याओं को भोजन, मिठाई, वस्त्र, नकद/दक्षिणा दिया जाता है—यह सेवा तथा सम्मान की भावनात्मक अभिव्यक्ति है।
धार्मिक-वैचारिक पृष्ठभूमि और स्रोत
- देवी‑पूजा और नवरात्रि का मूल सिद्धांत शाक्त परम्परा में देवी‑शक्ति की आराधना है; देवीमहत्म्य (मार्च/देवताओं को समर्पित मध्यकालीन ग्रंथों में) देवी की महिमा का बखान मिलता है। परन्तु सीधे‑सीधे “कन्या पूजन” की विस्तृत विधि प्राचीन वैदिक शास्त्रों में नहीं मिलती; यह अधिकतर मध्यकालीन तथा स्थानीय परम्परागत व्यवहार का रूप है।
- क्षेत्रीय भेद हैं: जैसे बंगाल में महा‑नवमी पर कन्यापूजन; महाराष्ट्र/उत्तर भारत में अक्सर अष्टमी के दिन कंजक पूजन। इसलिए शास्त्रीय और लोक‑परम्परा का मिश्रण देखने को मिलता है।
यदि तिथि बदल रही हो तो क्या करें (व्यावहारिक सलाह)
- अगर पूजन के आरम्भ के समय जिस तिथि की आवश्यकता है वह समाप्त होने वाली हो, तो या तो पूजन जल्दी शुरू करें (तिथि रहते हुए) या अगले दिन उस तिथि के भीतर नहीं तो स्थानीय पण्डित से परामर्श लेकर वैकल्पिक समय निर्धारित करें।
- कुछ परम्पराएँ तिथि के बदलने पर अगली दिन की वही तिथिगत पूजा स्वीकार कर लेती हैं; इसलिए कठोर नियम न बनायें—परम्परा और पञ्चाङ्ग की सलाह प्रमुख है।
अंतिम टिप्पणियाँ (संवेदनशीलता एवं व्यवहार)
कन्या पूजन का भाव भक्तिपूर्ण और मानवीय सेवा का है—देवी की तरह कन्याओं का आदर और onların गरिमा बनाए रखना मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। विभिन्न सम्प्रदायों और क्षेत्रों में परम्परागत भिन्नताएँ सामान्य हैं; इसलिए यह ज़रूरी है कि परिवार अपनी पारंपरिक शैली और स्थानीय पञ्चाङ्ग के अनुसार निर्णय ले। यदि सटीक मुहूर्त जानना है तो पारंपरिक पण्डित या भरोसेमन्द पञ्चाङ्ग का सहारा लें—यही सबसे निश्चित और सम्मानजनक मार्ग है।