क्यों कहा जाता है नवरात्रि में होती है शक्ति और भक्ति की परीक्षा?

नवरात्रि—जो आम तौर पर वर्ष में दो बार आती है (चैत्र व शारदीय नवरात्रि)—उसे पारंपरिक रूप से शक्ति और भक्ति की परीक्षा माना जाता है। यह परीक्षण केवल बाहरी नियमों (उपवास, रंग-रूठना, पूजा-विदhi) तक सीमित नहीं है, बल्कि अंदरूनी अनुशासन, नैतिक स्थिरता और भावनात्मक शुद्धता को परखने का अवसर भी है। संस्कृत-आधारित ग्रंथ जैसे देवीमहात्म्य (जो मार्कण्डेय पुराण का हिस्सा है) और देवीभागवत पुराण नवरात्रि के अनेक आध्यात्मिक आयामों पर प्रकाश डालते हैं; वहीं भगवद्गीता के भक्तियोग-प्रकरण (विशेषकर अध्याय 12 का विचार) भक्त की निष्ठा और स्थिरता पर बल देते हैं। ऐतिहासिक व स्थानीय परंपराओं के अनुसार नवरात्रि में देवी के नौ रूपों का स्मरण, तीर्थयात्राएँ, गीत-नृत्य और सामुदायिक सेवा चलती रहती है — सब मिलकर यह परखा जाता है कि व्यक्ति कितनी निष्ठा, संयम और सहिष्णुता दिखा पाता है। इस लेख में हम नवरात्रि में शakti और bhakti की ‘परीक्षा’ के कौन‑कौन से आयाम होते हैं, उनके तात्त्विक आधार और व्यवहारिक उपायों को विवेचित और संवेदनशील ढंग से समझने की कोशिश करेंगे।
नवरात्रि का काल, तिथिगत सन्दर्भ और सांकेतिक अर्थ
नवरात्रि दो प्रमुख प्रकार की मनाई जाती है: चैत्र नवरात्रि (चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक) और शारदीय नवरात्रि (अश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक)। शारद नवरात्रि के बाद आने वाला दसवाँ दिन विजयदशमी/दशहरा कहलाता है। ये तिथियाँ चंद्र तिथि पर आधारित हैं और क्षेत्रानुसार एक-दूसरे से दिनांकों में भिन्न हो सकती हैं। परंपरा में नौ रातों को देवी के नौ रूपों से जोड़कर देखा जाता है—प्रत्येक दिन का ध्यान किसी विशेष गुण व शक्ति पर केंद्रित रहता है—इसलिए यह क्रमिक आत्म-परिवर्तन और परीक्षा का रूप लेता है।
परीक्षा कैसे होती है: बाह्य नियम और आंतरिक संघर्ष
- शारीरिक परीक्षा: उपवास, आहार-सीमाएँ, जागरण, व्रत के नियम शारीरिक सहनशीलता और अनुशासन की कसौटी लगाते हैं। कुछ परंपराओं में सिर्फ फल-जल या एक समय का भोजन स्वीकार्य होता है।
- बौद्धिक-मानसिक परीक्षा: तृष्णा, क्रोध, अहंकार जैसी भावनाओं पर नियन्त्रण रखना—ये भीतर की लड़ाइयाँ हैं जिन्हें भक्त को पार करना होता है।
- नैतिक/सामाजिक परीक्षा: उत्सव के दौरान दया, सत्यनिष्ठा, परोपकार और सहिष्णुता का व्यवहार परखा जाता है—परिवार व समुदाय में छोटे‑छोटे संघर्षों में भी व्यक्ति की चरित्र-प्रवृत्ति झलकती है।
- आध्यात्मिक परीक्षा: भक्ति की पवित्रता—क्या भक्त कर्मकांडात्मक दिखावे के लिए पूजा कर रहा है या वास्तव में समर्पण व आंतरिक परिवर्तन का प्रयत्न कर रहा है? गीता के कई टीकाकार यह विभेदीय प्रश्न उठाते हैं।
ग्रंथीय और तांत्रिक दृष्टि: शक्ति की कसौटी
देवी-महात्म्य और देवी-भागवत जैसी कथाएँ देवी के रूपों द्वारा अज्ञान/अदृष्ट शक्तियों का नाश दर्शाती हैं; इन कथाओं का अर्थ केवल ऐतिहासिक कथा नहीं बल्कि प्रतीकात्मक भी है—अर्थात् अंदर के पाश, मोह, लोभ, अहंकार का विनाश। तांत्रिक परंपराएँ नवरात्रि को कुण्डलिनी जागरण व अंतःशुद्धि का समय भी मानती हैं; यहाँ ‘परिक्षा’ का अर्थ ऊर्जा का सही संचालन और वैमनस्य से रहित समर्पण भी है।
भक्ति का परीक्षण—गुण और धैर्य
भक्ति केवल भावों का आदान-प्रदान नहीं; वह निरन्तरता, निस्वार्थता और निष्ठा का व्यवहारिक परीक्षण है। भगवद्‑गीता (अध्याय 12) में भक्ति की स्थिरता और अनन्य भाव की महत्ता पर बल है—यह संकेत देता है कि संकट के समय में स्थिर रह पाना ही सच्ची भक्ति की निशानी है। नवरात्रि के अनुशासित दिन भक्तों के लिये यह परख होती है कि वे उत्सव के बाद भी वही व्यवहार और उदारता जारी रख पाएंगे या नहीं।
सामाजिक-नैतिक चुनौतियाँ और संवेदनशीलता
नवरात्रि का उत्सव कभी-कभी सामाजिक विभाजनों, व्यावसायीकरण और प्रतिस्पर्धा का भी विषय बन जाता है। यह एक परीक्षा इसलिए भी है कि समुदाय किस तरह समावेशिता, महिला‑सशक्तिकरण और पारंपरिक पहचान के बीच संतुलन बनाए रखता है। परिवारों और मंदिरों में विविध रीति-रिवाजों का सम्मान कर के दूसरों की आस्था का अपमान न करना भी एक व्यवहारिक कसौटी है।
व्यवहारिक सुझाव: परीक्षा से कैसे लाभ उठाएँ
- उपवास-नियमों को अपने स्वास्थ्य और पारिवारिक परिस्थिति के अनुसार समायोजित करें—सख्त नियम दिखावे के लिये नहीं, आत्म-नवाचार के लिये हों।
- दैनिक नियम में जप, ध्यान और देवी‑कथाओं का पाठ शामिल करें—यह भावनात्मक केन्द्रता बनाए रखता है।
- सेवा (प्रसाद-वितरण, दान, सामाजिक सहायता) को प्राथमिकता दें; यह भक्ति को कर्म के साथ जोड़ता है।
- किसी भी विवाद में क्षमाशीलता अपनाएँ; त्योहार का अर्थ सामंजस्य और नये आरम्भ का संकेत है।
निष्कर्ष
नवरात्रि को शक्ति और भक्ति की परीक्षा कहा जाता है क्योंकि यह बहुआयामी अभ्यास—शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक—का एक संकुचित समय देता है जिसमें व्यक्ति अपनी सीमाओं, आकांक्षाओं और समर्पण‑क्षमता का परीक्षण कर सकता है। ग्रंथीय परंपराएँ और लोक-आचरण दोनों मिलकर यह दर्शाते हैं कि परीक्षा का अंतिम उद्देश्य दैवीय गुणों का विकास और व्यक्ति का आन्तरिक परिवर्तन है—सिर्फ नियमों का पालन नहीं। इस दृष्टि से नवरात्रि एक चुनौती भी है और एक अवसर भी: चुनौती पुरानी आदतों से मुक्त होने की, और अवसर आत्मिक परिपक्वता व समाज में सहिष्णुता बढ़ाने का।