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क्यों मानी जाती है दशहरे पर शस्त्र पूजा पवित्र?

क्यों मानी जाती है दशहरे पर शस्त्र पूजा पवित्र?

दशहरा या विजयादशमी पर शस्त्र पूजा की परंपरा कई भारतवर्षीय धार्मिक, सामाजिक और ऐतिहासिक धागों से बुनी हुई है। तीर्थ, ग्राम और दरबार से लेकर घर-दीवार और हस्तशिल्पी की दूकान तक, लोग अपने हथियार, औज़ार और उपकरण माँ-देवता या विजय के प्रतीक के रूप में स्थापित कर अर्घ्य और आरती करते हैं। यह एक साथ आत्मिक और पृथ्वीगत अर्थ रखता है: एक ओर यह पुण्य‑समय में हिंसा के प्रयोग को धर्म के चाक्षुष से देखना सिखाता है, दूसरी ओर यह हाथ के काम, हथियारों और साधनों की जिजीविषा—साफ़-सफ़ाई, मर्मसम्भार और अगली पीढ़ी को हस्तान्तरण—पर ध्यान देता है।

तिथ्यात्मक और पर्वगत संदर्भ

आयुध पूज्य या शस्त्र पूजा सामान्यतः नवरात्रि के समापन पर, शुक्ल पक्ष की दशमी—विजयादशमी—को की जाती है। विजयादशमी दिनांश (Dashami) आस्विन मास में पड़ता है और ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार आम तौर पर सितंबर-अक्टूबर के बीच आता है; सटीक तिथि हर वर्ष पंचांग के अनुसार बदलती है। नवरात्रि के अंतिम दिन देवी की विजय और अधर्म पर धर्म की स्थापना का प्रतीक माना जाता है, अतः उसी विजय-प्रतीक—शस्त्र, औज़ार और उपकरण—को पूज्य समझ कर स्थापित किया जाता है।

धार्मिक-ग्रंथीय और व्याख्यात्मक विविधता

  • शाक्त और तान्त्रिक दृष्टि में देवी के विभिन्न अस्त्र और आयुध उनकी शक्ति (शक्ति) के रूप हैं; पुराणों और कुछ आगमग्रंथों में भी आयुधपूजा का उल्लेख मिलता है—यद्यपि ग्रन्थांतरानुगत परंपराएँ क्षेत्रीय रूप से भिन्न हैं।
  • वैष्णव परंपराएँ राम-रावण युद्ध की स्मृति से जोड़ती हैं—राम की विजय को अधर्म पर धर्म की जीत माना जाता है और उनके धनुष-बाण का पूजन विजय का स्मारक बन जाता है।
  • शैव/स्मार्त दृष्टियों में शस्त्र पूजन को कर्म-साधनों का पूजन कहा जाता है; गीता‑वाचक और संप्रदायग्रंथ कर्म और धर्म से संबंधित विवेचन करते हैं, इसलिए शस्त्र को केवल हिंसा के उपकरण नहीं बल्कि धर्मपालन के साधन के रूप में देखा जाता है।

ऐतिहासिक और सामाजिक कारण

ऐतिहासिक अध्ययन और पारंपरिक स्मृतियाँ बताती हैं कि शस्त्र पूजा की परंपरा उस समय के सामाजिक‑आर्थिक चक्रों से भी जुड़ी रही है। मानसूनी फसल कटने और शरद ऋतु की शुरुआत के साथ ही अभियान या यात्राओं का समय आता था; सैन्य और कुटनीतिक गतिविधियाँ मानसून के बाद शुरू होतीं—इसलिए हथियारों को आराध्य कर नए अभियान की शुभआगाज की जाती थी। इसी तरह, कृषि‑समुदायों में फसल कटने के बाद खेत‑उपकरणों को पूजा‑वंदन कर अगली मेहनत के लिए उनका रख‑रखाव और सम्मान सुनिश्चित किया जाता था।

आध्यात्मिक अर्थ: बाह्य और आन्तरिक आयुध

बहुत से पञ्चांग‑वाचक और धर्मशास्त्रियों का कहना है कि शस्त्र पूजा का गहरा अर्थ केवल भौतिक हथियार में न देख कर उनकी रूपांतरित अर्थवत्ता में पहचानना है।

  • शस्त्र/औज़ार को आत्मिक गुणों—बुद्धि (viveka), संकल्प (sankalpa), स्मृति (smriti) —के प्रतीक के रूप में देखा जाता है।
  • अनेक गीता‑मंतव्यकार यह कहते हैं कि धर्म के लिए आवश्यक कठोर निर्णय और कर्तव्य का पालन भी एक प्रकार का ‘आयुध’ है; इसलिए उसका शुद्धिकरण और समर्पण आवश्यक है।
  • शस्त्र पूजा हिंसा को वैध और वैधानिक करने का औचित्य नहीं देती; बल्कि यह यह बताती है कि किसी भी शक्ति या उपकरण का उपयोग धर्‍य‑नैतिक सीमाओं के भीतर होना चाहिए।

संस्कृतिक विविधता और लोकप्रवृत्तियाँ

आयुधपूजा पूरे भारत में एकरूप नहीं है—क्षेत्रानुसार रूप और कारण अलग हैं। कर्नाटक के मैसूर दशहरे में दरबारी आयुधपूजा दिखावटी और संस्थागत रूप में होती आई है; महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान की कुछ पारंपरिक योद्धा (क्षत्रिय/मराठा) परंपराओं में व्यक्तिगत हथियार पूजन का प्रचलन रहा है। पूर्वोत्तर और नेपाल में विजयादशमी का समाजिक‑राजनीतिक अर्थ भी है—जहाँ गैजल-उत्सव, जाति‑सेनाएँ और सामुदायिक संस्थाएँ सामूहिक रूप से उपकरणों का पूजन करती हैं। इसी तरह, पुरुषों के साथ‑साथ शिल्पकार, कुम्हार, बढ़ई, किसान और कारखानों के श्रमिक भी अपने औज़ारों का पूजन करते हैं—जिससे यह परंपरा जीवन‑रूपी कार्यों का पूजन भी बन जाती है।

प्रक्रिया: व्यवहारिक रूप और रस्में

  • आम रस्मों में उपकरणों और शस्त्रों को सफ़ाई, तेल‑पोंछ, नींबू‑ फूल, रोली/कुमkum, चावल और दीप से पूजना शामिल है।
  • कई स्थानों पर मंत्र या श्लोक पढ़े जाते हैं; देवी‑पूजन के साथ हथियारों को समर्पित कर दान या भोज का आयोजन भी होता है।
  • पारंपरिक रूप से यह न केवल धार्मिक क्रिया है बल्कि उपकरणों की जाँच‑परख, मरम्मत और भविष्य के लिए सूची बनाने का समय भी माना गया है—अर्थात् यह तकनीकी रख‑रखाव को धार्मिक संस्कार से जोड़ता है।

आधुनिक प्रासंगिकता और आलोचनात्मक दृष्टि

समकालीन समाज में शस्त्र पूजा के अर्थ और प्रयोजन पर बहस होती है। आलोचक प्रश्न करते हैं कि क्या यह परंपरा हिंसा के उपकरणों को वैध ठहराती है; समर्थक उत्तर देते हैं कि पूजा का रुझान अधिकतर नैतिक जिम्मेदारी, उपकरणों की देखभाल और कार्य‑गुण की मान्यता की ओर रहता है। सुरक्षा सेवाओं, पुलिस और सेना में भी आयुध पूजन भावनात्मक‑नैतिक शक्ति प्रदान करने का माध्यम है—इसे अनुशासन और उत्तरदायित्व का प्रतीक माना जाता है।

निष्कर्ष

दशहरा पर शस्त्र पूजा सिर्फ प्राचीन विजयों की स्मृति नहीं है; यह एक बहुस्तरीय रस्म है जो धार्मिक विश्वास, सामाजिक‑ऐतिहासिक परिस्थितियों और कार्यशील जीवन के सम्मान को एक साथ जोड़ती है। शास्त्रीय और लोक दुविधाओं के बीच यह परंपरा हमें याद दिलाती है कि शक्ति के साधनों को केवल सामग्री वस्तु के रूप में न देखकर उनके नैतिक प्रयोजन और रख‑रखाव की ज़रूरत को भी समझना चाहिए। विभिन्न संप्रदाय और क्षेत्र इस परंपरा को अलग तरीके से व्याख्यायित करते हैं—पर सामान्य धागा वही रहता है: शक्ति और साधन का उत्तरदायी, शुद्ध और समुदाय‑समर्थनकारी उपयोग।

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About G S Sachin

I am a passionate writer and researcher exploring the rich heritage of India’s festivals, temples, and spiritual traditions. Through my words, I strive to simplify complex rituals, uncover hidden meanings, and share timeless wisdom in a way that inspires curiosity and devotion. My writings blend storytelling with spirituality, helping readers connect with Hindu beliefs, yoga practices, and the cultural roots that continue to guide our lives today.When I’m not writing, I spend time visiting temples, reading scriptures, and engaging in conversations that deepen my understanding of India’s spiritual legacy. My goal is to make every article on Padmabuja.com a journey of discovery for the mind and soul.

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