गणेश चतुर्थी में ढोल ताशे क्यों गूंजते हैं यह वजह जानें

गणेश चतुर्थी में क्यों गूंजते हैं ढोल और ताशे
मुझे आज भी वो सुबह याद है—सूरज अभी हल्का-सा उभर रहा था और गली के पार से ढोल की पहली थाप आई। माँ का हाथ पकड़े मैं दौड़ा, पंडाल की ओर उस गूँजता हुआ संगीत ने खींचा। फूलों की खुशबू, मोदक की मिठास और ढोल‑ताशे की लय—सब मिलकर एक अनोखी भक्ति की लय बना रहे थे।
ढोल और ताशे सिर्फ शोर नहीं होते; वे एक संदेश देते हैं। सबसे पहले, ये प्रेम की पुकार हैं। गणेशजी को आमंत्रित करने का यह तरीका सदियों से चला आ रहा है—धुन और नाद से वातावरण पवित्र होता है और मन श्रद्धा से भर जाता है।
नाद ब्रह्म की परंपरा हमें बताती है कि ध्वनि स्वयं एक आध्यात्मिक माध्यम है। प्राचीन ग्रंथों और साधना पद्धतियों में शब्ध को सृष्टि की मूल ऊर्जा माना गया है। ढोल‑ताशे की गूँज हमें चेतना में खटका देती है, पुराने विचारों को हिलाकर नए संकल्प के लिए जगह बनाती है।
एक समाजशास्त्रीय दृष्टि भी है। लोकमान्य तिलक ने 19वीं सदी में सार्वजनिक गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया था—यह सिर्फ पूजा नहीं, बल्कि सामुदायिक एकता का माध्यम भी था। ढोल‑ताशे की लय ने लोगों को एक साथ खड़ा किया, न केवल भक्ति में बल्कि सामाजिक उत्साह और नेतृत्व की भावना में भी। महाराष्ट्र में यह विशेष रूप से स्पष्ट है, जहाँ विशाल मर्च और ढोल‑ताशों के संग उदय और विसर्जन होते हैं।
ढोल और ताशे के कई अर्थ हैं:
- आह्वान: भगवान गणेश को बुलाने का ढोलक‑ताल।
- विसर्जन का उत्साह: अंतिम दर्शन से पहले का सामूहिक उत्साह और भावविभोरता।
- रिदम‑हृदय: ढोल की थाप मानव हृदय की धड़कन की तरह समुदाय को जोड़ती है।
- शुद्धिकरण: तेज और स्पष्ट नाद से नकारात्मकता दूर होने का भाव।
भक्ति में संगीत का स्थान अनिवार्य है। ढोल‑ताशे की लय पर लोग नाचते हैं, हाथ जोड़ते हैं, या अकेले अपने मन की बात कहकर आहतियाँ भूल जाते हैं। यह एक katharsis की तरह काम करता है—दैनंदिन बाधाओं का बोझ हल्का हो जाता है और गणपति की दया की अनुभूति घनिष्ठ हो जाती है।
आधुनिकता और शहरी जीवन ने ढोल‑ताशे के प्रदर्शन में कुछ बदलवा जरूर किए हैं—समय, ध्वनि सीमाएँ और सार्वजनिक नियम। फिर भी, सार वही रहता है: सामूहिक सहभागिता, श्रद्धा और सांस्कृतिक पहचान। कई समुदाय आज संयम के साथ उत्सव मनाते हैं—ध्यान रखते हुए कि भक्ति शांतिपूर्ण और सम्मानजनक रहे।
ढोल‑ताशे की गूँज केवल कानों तक सीमित नहीं रहती; वह दिलों में एक सामूहिक स्मृति बनाती है। बरसों बाद भी कोई धुन सुनकर पुरानी गलियों का दृश्य आँखों के सामने आ जाता है—वो मुस्कान, वो दंडवत, वो हाथ में मोदक।
इसलिए जब अगली बार गणेश चतुर्थी पर ढोल‑ताशे की ताल सुनें, समझिए कि यह केवल संगीत नहीं, बल्कि एक निमंत्रण है—विघ्नहर्ता के लिए, एक नए आरंभ के लिए, और सामुदायिक प्रेम के लिए।
निष्कर्ष: जीवन के हरेक समारोह में ध्वनि एक सेतु है—हमें आपस में बांधने और आत्मा से जोड़ने वाली। गणेश चतुर्थी पर ढोल‑ताशे की गूँज में समा जाएँ, अपने अंदर की बाधाओं को पहचानें और प्रेम‑भक्ति के साथ नए कदम उठाएँ।