गोवर्धन पूजा पर क्यों बनाया जाता है 56 भोग? ये है कहानी
गोवर्धन पूजा पर 56 भोग यानी “छप्पन भोग” क्यों लगाया जाता है—इसका उत्तर सिर्फ एक-वाक्य में समझना मुश्किल है। यह परंपरा पौराणिक कथा, स्थानीय आस्था, देवभक्ति की रीतियों और कृषि-आधारित समाज की कृतज्ञता का मिश्रण है। गोवर्धन पूजा मुख्यतः दीपावली के अगले दिन मनाई जाती है जब वृन्दावन और ब्रजभूमि में ठाकुर श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाने की कथा स्मरण की जाती है (श्रीमद्भागवतम् के दशम स्कन्ध में यह लीला वर्णित है)। अन्नकूट—यानी खाद्य-परबत—रचना उसी स्मृति से जुड़ी है: भक्त विविध प्रकार के पकवान इकट्ठे कर एक छोटे पर्वत के रूप में प्रस्तुत करते हैं। 56 भोग का अंक समय के साथ विभिन्न समझों में व्याख्यायित हुआ है: कुछों के लिए यह क्षेत्रीय-पारंपरिक संख्या है, कुछ विद्वान इसे संख्यात्मक प्रतीकवाद से जोड़ते हैं, तथा कई लोगों के लिए यह केवल इस बात का प्रदर्शन है कि कृषि और प्रकृति से जो भी भोजन मिलता है वही भगवान को समर्पित है। नीचे हम इन व्याख्याओं, ऐतिहासिक संदर्भों और रीति-रिवाजों को क्रमवार समझने की कोशिश करेंगे।
गोवर्धन पूजा और अन्नकूट का पौराणिक संदर्भ
शास्त्रीय कथा के अनुसार इंद्र की क्रोध से रक्षार्थ कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाकर गोकुलवासियों तथा पशु-पक्षियों की रक्षा की थी। इस घटना के बाद ग्रामीणों ने इंद्र की पूजा छोड़करGovardhan की पूजा कर अन्न-समृद्धि और सुरक्षा का धन्यवाद किया। यही घटना आज अन्नकूट या गोवर्धन पूजा के रूप में मनाई जाती है—अर्थात् पर्वत के आकार में अन्न और पकवान रखकर उसे समर्पित करना। श्रीमद्भागवतम् के दशम स्कन्ध के कई अध्याय इस घटनाक्रम के सूत्रधार माने जाते हैं; परंतु “56” की संख्या का प्रत्यक्ष उल्लेख महाभारत या भगवद्गीता में नहीं मिलता।
56 भोग — व्याख्याओं का सार
- कृषि-केंद्रित व्याख्या: कई लोकपरंपराओं में 56 को भूमि और फसलों की समृद्धि से जोड़कर देखा जाता है—यह संख्या दिखाती है कि खेतों से आने वाले अनेक प्रकार के अन्न, फल, दालें और पकवान प्रभु को अर्पित किए जा रहे हैं।
- संख्यात्मक/प्रतीकात्मक व्याख्या: लोकविश्वास में 56 को पूर्णता और समेकन का संकेत माना जाता है। कुछ पारंपरिक कथाएँ और सज्जन यह भी बताते हैं कि 56 का अर्थ सात और आठ के गुणन से जोड़ा जाता है (जैसे सप्ताह और स्वादों का प्रतिनिधित्व), पर इसे सार्वभौमिक शास्त्रीय प्रमाण के रूप में नहीं लिया जा सकता—यह एक लोकव्याख्या है।
- भक्तिपूर्ण समर्पण: भौतिक और स्वादगत विविधताओं का संग्रह दर्शाता है कि भक्त अपने सभी रस-सुविधाओं को छो़ड़कर प्रभु को अर्पित कर रहे हैं। इस दृष्टि से 56 विविधताओं का प्रतीक है—स्वादों, बनावटों और तैयारियों की व्यापकता का प्रतिनिधित्व।
- सांस्कृतिक-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: राजसी और समृद्ध पाक-व्यवस्थाओं में किसी देवतादान के अवसर पर विस्तृत भोज का आयोजन सामान्य था। उत्तर भारत के कुछ भागों में परंपरागत रूप से संख्या 56 का प्रयोग शाही भोग-क्रमों में देखा गया, जो बाद में धार्मिक रीति में समाहित हुआ।
कहाँ और कैसे यह परंपरा प्रचलित हुई?
छप्पन भोग विशेष रूप से ब्रजभूमि, उत्तर भारत और पश्चिमी भारत के कुछ वैष्णव-संप्रदायों में लोकप्रिय है। पर्श्व-परंपराएँ भिन्न हो सकती हैं—कुछ मंदिरों और घरों में 56 के स्थान पर कम या अधिक प्रकार रखे जाते हैं, या संख्या का सटीक पालन न होकर विचार का पालन प्राथमिक माना जाता है। पुस्टिमार्ग और अन्य भक्तिमार्गों में भोगकी व्यवस्था और विविधानुसार पकवानों की तैयारी को विशेष महत्त्व दिया जाता है। इस परंपरा का धार्मिक मूल भाव—कृष्ण को अन्न अर्पित कर धन्यवाद करना—सभी में सामान्य रहता है।
56 भोग—आम श्रेणियाँ और उदाहरण
पहुँच और संसाधन अनुसार भोग की सूची बदलती है। सामान्यतः यह चीजें शामिल होती हैं:
- प्रमुख दालें और खिचड़ी/चावल/पुलाव के प्रकार
- कई तरह के हलवे, खीर, लड्डू, पेड़े, मिट्ठाई
- नमकीन—बर्फी, सेव, चिवड़ा, नमकीन मिश्रण
- सब्ज़ियाँ—सिंघाड़े, सूखी सब्जियाँ या तरकारी के छोटे-छोटे व्यंजनों
- फलों का मिश्रण—केला, संतरा, सीजनल फल
- पकवान जो स्थानीय परंपरा के अनुरूप हों—जैसे ब्रज में पेड़े, बनारस में खास मिठाइयाँ आदि
यह सूची केवल संकेतात्मक है; परंपरा का स्थान, उपलब्धता और भक्त की इच्छा अनुसार इसमें अनवरत परिवर्तन होते रहते हैं।
अनुष्ठान-प्रक्रिया और प्रसादीकरण
भोग को अक्सर मंदिर के गर्भगृह या घर के देवस्थान पर पर्वताकार सजाया जाता है। मंत्रोच्चारण, आरती और कथा-पालन के पश्चात भोग का नैवेद्य समझा जाता है। फिर वही व्यंजन प्रसाद के रूप में सामूहिक वितरण किए जाते हैं—यह साझा कृतज्ञता और समुदायिकता का प्रतीक है। कई स्थानों पर गोबर से बना छोटा गोवर्धन मॉडल बनाकर उस पर अन्न और पकवान सजाए जाते हैं।
निष्कर्ष—कहानी का सार
56 भोग की परंपरा का मूल भाव कृतज्ञता, भक्ति और प्रकृति-आधारित जीवन का उत्सव है। जबकि सटीक संख्या के बारे में अलग-अलग व्याख्याएँ मौजूद हैं—पारंपरिक, सांस्कृतिक और प्रतीकात्मक—पर अंतिम उद्देश्य एक ही रहता है: भगवान को अन्न अर्पित कर समाज और कृषि-आधार के प्रति धन्यवाद प्रकट करना, तथा समुदाय में साझा प्रसाद से सम्बन्धों को पुष्ट करना। इसलिए चाहे किसी घर में 56 की संख्या सख्ती से निभाई जाए या एक व्यापक अन्नकूट तैयार किया जाए, मूल भावना—भक्तिभाव और आभार—वही रहती है।