त्रिपुरासुर युद्ध में गणपति की भूमिका – एक अनकही कथा

त्रिपुरासुर युद्ध—जिसे पारंपरिक रूप से शिव के त्रिपुरान्तक रूप में दर्शाया गया है—हिंदू पौराणिक परिदृश्य का एक प्रमुख मिथक है। इस कथा के मूल में तीन असुरों द्वारा निर्मित तीन दृश्यमान-अदृश्यमान नगरों (त्रिपुर) का वर्चस्व और देवताओं की वेदना है, जिनके नाश के लिए देवता शिव को आह्वान करना पड़ता है। सामान्य वर्णन में विष्णु की चालनयुक्त नीति और शिव की निर्णायक क्रिया प्रमुख रहती है, परंतु लोककथाओं, क्षेत्रीय पुराणों और मंदिरस्थल-पौराणिकताओं में गणपति (गणेश) की उपस्थिति कई रूपों में मिलती है। यह लेख उन विभिन्न स्रोतों और व्याख्याओं की ओर ध्यान दिलाता है जो बताती हैं कि त्रिपुरासुर युद्ध में गणपति की क्या भूमिकाएँ रहीं— ऐतिहासिकतायुक्त पाठ्य-संदर्भों तथा संस्कृत, तमिल और क्षेत्रीय परम्पराओं में प्रचलित व्याख्याओं को संतुलित तरीके से रखते हुए। प्रयोजन केवल कथानक का पुनर्कथन नहीं, बल्कि यह समझना भी है कि गणपति की उपस्थिति को विभिन्न परम्पराएँ किस प्रकार प्रतीकात्मक, संस्कारगत और संस्कृतिक संदर्भों में पढ़ती हैं।
कथा का संक्षेपिकृत संदर्भ और स्रोत
त्रिपुरासुर या त्रिपुरकथा का मुख्य रूप पारंपरिक रूप से कुछ प्राचीन पुराणों—विशेषकर शिव पुराण, लिंग पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण—में मिलता है। इसमें तीन असुरों द्वारा निर्मित तीन भिन्न-भिन्न तत्वों के नगरों (अर्थात् स्वर्ण, रजत, लौह या आकाशीय-स्थल के रूप) का वर्णन है जो देवताओं और मनुष्यों के लिए आपत्तिजनक बन जाते हैं। देवता मिलकर उपाय सोचते हैं; कुछ संस्करणों में विष्णु और ब्रह्मा की चाणक्य नीति प्रमुख रहती है। शिव द्वारा एक विशेष अस्त्र-तीर से उन तीनों नगरों का नाश करने का प्रसंग पौराणिक साहित्य में विस्तारित रूप से मिलता है।
गणपति का स्मरण—कौन से स्रोत इस बात का समर्थन करते हैं?
मुख्य-पुराणिक वर्णनों में गणपति का संकेत सीमित या अप्रत्यक्ष होता है। परन्तु:
- कुछ क्षेत्रीय स्थलपुराण और मंदिर-परंपराएँ गणपति को शिव के सहचर या गणों के अध्यक्ष के रूप में युद्ध स्थल के निकट उपस्थित बताती हैं।
- फोक स्मृति और मध्ययुगीन स्टोत्रों में गणपति को विघ्ननाशक के रूप में पहले स्मरण करने की परम्परा होने से, त्रिपुरान्तक पूजा-विधि में भी उनके आह्वान का संकेत मिलता है।
- तांत्रिक और श़ाक्त विवेचनाओं में गणपति को आन्तरिक बाधाओं (विघ्न) के रक्षक/निवारक के रूप में देखा जाता है और इसलिए भी उसे युद्ध-उपाय में सम्मिलित किया जाता है।
किस प्रकार की भूमिकाएँ पाई जाती हैं?
साक्ष्य एवं परंपरागत व्याख्याओं के आधार पर गणपति की भूमिकाएँ सामान्यतः निम्न तीन श्रेणियों में पढ़ी जा सकती हैं:
- विधि-पूर्व आह्वानकर्ता: स्मार्त तथा लोक-चारण में किसी भी दैवीय क्रिया से पहले गणपति का स्मरण अनिवार्य माना गया है। इसलिए त्रिपुरान्तक यज्ञ अथवा पूजन में गणपति को प्रारम्भिक देवता के रूप में आह्वान किया जाता है ताकि कर्म सफल हो और विघ्न न आए।
- साहचर्य वा सहायक योद्धा: कुछ स्थानिक कथाओं में गणपति को शिव के गणों का नेता बताकर युद्धस्थल पर दर्शाया गया है—वह सामरिक रूप में प्रमुख सेनापति नहीं, पर शत्रु-विघ्नों को काटने का दायित्व निभाता है।
- प्रतिनिधि-वैचारिक भूमिका (सांकेतिक): दार्शनिक और तांत्रिक व्याख्याओं में गणपति को बुद्धि/विवेक के रूप में देखा जाता है—वह आन्तरिक अड़चनों (त्रिगुणात्मक बंधन, अहंकार, माया) को हटाकर शिव (परमब्रह्म/परत्व) को कार्य सम्पन्न करने योग प्रदान करता है।
व्याख्यान: सांकेतिक व ध्यानात्मक पठान
इन व्याख्याओं में सबसे रोचक पहलू यह है कि गणपति की उपस्थिति को भौतिक युद्ध की सहायकता से अधिक आन्तरिक-आध्यात्मिक संदर्भों में पढ़ा गया है। कुछ श्रौत्रिक-साधन पाठों में त्रिपुरासुर के तीन नगरों को मानस के तीन अवस्थाओं—तमस, रजस, सत्व—या त्रिगुणात्मक अनुभवों के रूप में देखा जाता है। इस बिंदु पर, गणपति का ‘विघ्नहार’ होना दर्शाता है कि बुद्धि और उपाय-चातुर्य के बिना परमसत्ता की ओर अग्रसरता संभव नहीं।
धार्मिक-क्रियात्मक स्मृतियाँ और मंदिर-परंपराएँ
कुछ मंदिरों में जहां त्रिपुरान्तक सम्बन्धी पौराणिकता जानी जाती है, वहाँ गणपति की प्रतिमाएँ या उनके स्मरण की रीतियाँ युद्धोपवेश या त्रिपुरवध परंपरा के साथ जुड़ी मिलती हैं। अन्य परंपराओं में त्रिपुरान्तक-पर्व को विशिष्ट पूर्णिमा (कुछ स्थानों पर कार्तिक पूर्णिमा/त्रिपुरारि पूर्णिमा के रूपक स्मरण) के साथ जोड़ा जाता है और पूजा-विधि में गणपति को प्रथम चरण में पूजित किया जाता है।
शैव, वैष्णव और शाक्त दृष्टियाँ—विविधता और सहिष्णुता
शैव पुराणों में कथा का केंद्र शिव है; वैष्णव दृष्टांतों में विष्णु की रणनीति तथा ब्रह्माण्डी सन्निवेश पर ध्यान रहता है। शाक्त या तांत्रिक व्याख्याओं में कथा का आध्यात्मिक अर्थ अधिक प्रबल होता है। गणपति की भूमिका पर इन परंपराओं का मत एक नहीं है—जिसे हम ऐतिहासिक विविधता और क्षेत्रीय लोकविश्वास का संकेत मान सकते हैं। अतः यह कहना युक्तिसंगत है कि गणपति का समावेश न तो सर्वत्र मूलभूत तकनीक था और न ही पूर्णतः अनुपस्थित—बल्कि वह उपक्रमों में एक अनुकूलक, पूज्य और प्रतीकात्मक हस्तक्षेप के रूप में रहा।
निष्कर्षात्मक चिंतन
त्रिपुरासुर युद्ध में गणपति की ‘अनकही कथा’ वास्तव में दो स्तरों पर काम करती है: एक, वह सामाजिक-सांस्कृतिक तथ्य कि किसी भी महायज्ञ या लड़ाई से पहले गणपति का स्मरण सामान्य रहनुमाई/परंपरा रहा है; और दो, दार्शनिक-सांकेतिक अर्थ जिसमें गणपति आन्तरिक विघ्नों का प्रतिनिधि/निवारक बन कर शिव के उद्धार (नाश) के कार्य को संभव बनाता है। अलग-अलग पाठ्य-पारम्परिकियों के अनुसार यह भूमिका चरितार्थ होती दिखती है—इसीलिए इतिहास और धर्म-विज्ञान दोनों के नजरिये से विनम्र और विवरणपरक अध्ययन आवश्यक है। पाठक/अन्वेषक इस बहुवैचित्रता को देखते हुए, त्रिपुरांतक कथा में गणपति की उपस्थिति को न केवल कथावस्तु की बहुलता के रूप में स्वीकार कर सकता है, बल्कि उसे आन्तरिक साधना एवं कर्म-साधन के प्रतीक के रूप में भी पढ़ सकता है।