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दिवाली के अगले दिन क्यों की जाती है विश्वकर्मा पूजा? जानें महत्व

दिवाली के अगले दिन क्यों की जाती है विश्वकर्मा पूजा? जानें महत्व

दिवाली के अगले दिन कई जगहों पर विश्वकर्मा पूजा देखने को मिलती है — खासकर शिल्पी, कारीगर, कार्यशाला और औद्योगिक इलाकों में। लोग अपनी मशीनें, औजार, वाहन और कार्यस्थल पवित्र कर के भगवान विश्वकर्मा को प्रणाम करते हैं। यह प्रथा सिर्फ पुरातन रीति नहीं, बल्कि काम, कौशल और सुरक्षित उत्पादन के प्रति आधुनिक श्रमिकों की आस्था का भी रूप बन चुकी है। विभिन्न समुदायों में पूजा का समय और नाम अलग हो सकते हैं: कुछ स्थानों पर इसे गोवर्धन पूजा/अन्नकूट के साथ मनाया जाता है (जो दिवाली के अगले दिन आती है), जबकि कई पूजा‑कर्म पारंपरिक विष्वकर्मा जयंती या कन्या संक्रांति के साथ जुड़े हैं। नीचे हम ऐतिहासिक-धार्मिक संदर्भ, प्रथागत रीति‑रिवाज, प्रतीकात्मक अर्थ और क्षेत्रीय विविधताओं को स्रोत‑आधारित और संयमित ढंग से समझाने की कोशिश करेंगे।

धार्मिक‑सांस्कृतिक पृष्ठभूमि

विष्वकर्मा (Vishvakarma) का नाम वैदिक और पुरीाणिक साहित्य में आता है। वैदिक संदर्भों में ‘विश्वकर्मा’ या ‘विश्वकर्मन्’ को रचनाकार या कारीगर के रूप में वर्णित किया गया है; कुछ पुराणों (जैसे विष्णु पुराण व अन्य पारंपरिक कथानकों में) में उन्हें देवों के लिये महत्त्वपूर्ण भवन, अस्त्र और उपकरण बनाने वाला आर्किटेक्ट बताया गया है। इन ग्रंथों में उनसे संबंधित किस्से अलग‑अलग रूप लेते हैं, इसलिए विद्वान बताते हैं कि भगवान विष्वकर्मा का चरित्र और पूजा के तरीके स्थानीय परंपराओं के साथ मिलकर विकसित हुए।

क्यों दिवाली के अगले दिन?

यह प्रश्न का उत्तर एकल नहीं है; व्याख्याएँ क्षेत्रीय और सामुदायिक प्रथाओं पर निर्भर करती हैं:

  • व्यावहारिक कारण: दिवाली पर बहुत से व्यापार‑कार्यालय और फैक्ट्रियाँ बंद रहती हैं; अगले दिन समुदाय एकत्रित होकर अपने कार्यस्थल पर पूजा कर सकते हैं।
  • समकालीन संगति: कई स्थानों पर दिवाली के अगले दिन गोवर्धन पूजा/अन्नकूट मनाई जाती है — यह दिन नए चक्र के आरंभ और गणन‑कार्य (लेखांकन आदि) से जुड़ा माना जाता है; ऐसे दिन उपकरणों और व्यापारिक साधनों की पूजा करना तर्कसंगत प्रतीत हुआ।
  • धार्मिक समांतरता: दिवाली प्रकाश का त्योहार है; प्रकाश के बाद कर्म और निर्माण का पवित्रिकरण करना प्रतीकात्मक है — प्रकाश से जीवन और उत्पादन दोनों को समृद्ध माना जाता है।
  • स्थानीय परंपरा: कुछ समुदायों में विष्वकर्मा पूजा की पारम्परिक तिथि कन्या संक्रान्ति या विष्वकर्मा जयंती से जुड़ी होती है; किन्तु औद्योगिक क्षेत्रों में यह परंपरा दिवाली‑समय के साथ मेल खा गई।

पूजा‑रिवाज और अनुष्ठान

रिवाजों में विभिन्नता है, पर सामान्य तौर पर निम्न रस्में सामान्य देखी जाती हैं:

  • काम करने वाली जगह, मशीनों और औजारों की सफाई और सजावट।
  • मशीनों और वाहनों को हल्दी‑कुमकुम, फूल और तुलसी/वृन्दा के साथ सजाना; मशीनों पर राख या चंदन लगाना।
  • कलश प्रतिष्ठा, दीपो का प्रज्वलन, पुष्प, नारियल और प्रसाद अर्पित करना।
  • कई जगहों पर औऱत व पुरुष दोनों सामूहिक भजन, हवन या संक्षिप्त पुरोहितीय पूजा करते हैं।
  • आधुनिक रूप में सुरक्षा‑अनुष्ठान: उपकरणों पर सुरक्षा चिह्न, नई सुरक्षा‑प्रणालियों की घोषणा, और कर्मचारियों को सुरक्षा‑निर्देश देना।

प्रतीकात्मक अर्थ और आध्यात्मिकता

विश्वकर्मा पूजा के पीछे कई स्तरों पर अर्थ देखे जा सकते हैं:

  • कौशल की पूजा: शिल्प, तकनीक और निर्माण के श्रम को पवित्र मानना — यह सुझाव देता है कि काम केवल अर्थार्जन नहीं, बल्कि संस्कार और समाज‑निर्माण का साधन है।
  • कृतज्ञता: काम की मशीनों और औजारों के प्रति आभार व्यक्त करना — उनसे मिलने वाली सुरक्षा और आजीविका के लिए धन्यवाद।
  • नव आरम्भ और लेखांकन: व्यापारी व कारीगर समुदायों के लिए दिवाली वित्तीय वर्ष का बंद‑खाता मान्य होता है; अगला दिन नए चक्र की शुरुआत के रूप में उपकरणों का पूजन उपयुक्त माना जाता है।
  • नैतिक चेतना: पूजा कर्मस्थल को केवल उत्पादन केन्द्र नहीं, बल्कि नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी के स्थान के रूप में सिद्ध करती है — सुरक्षा, गुणवत्ता और कर्मशीलता की स्मृति कराती है।

क्षेत्रीय विविधता और व्याख्याएँ

भारत के भिन्न भागों में विष्वकर्मा पूजा की तारीख और स्वरूप अलग है। कुछ क्षेत्रों में यह कन्या संक्रान्ति या विष्वकर्मा जयंती पर अधिक प्रचलित है; वहीं औद्योगिक क्षेत्रों (वेस्ट बंगाल, झारखण्ड, उत्तर‑प्रदेश के कुछ हिस्से, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के औद्योगिक इलाकों) में दिवाली के अगले दिन सामूहिक पूजा का चलन मजबूत है। विद्वान और धर्मशास्त्रीय टिप्पणियाँ यह बताती हैं कि त्योहारों का कालक्रम स्थानीय आर्थिक‑सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप बदलता रहा है — यानी धार्मिक समय‑तालिका और सामाजिक व्यवहार का पारस्परिक प्रभाव रहा है।

निष्कर्ष: पूजा का समकालीन महत्व

विश्वकर्मा पूजा का दिवाली के अगले दिन होना केवल परंपरा का अनुकरण नहीं; यह काम, सुरक्षा और कारीगरी के प्रति एक सार्वजनिक प्रतिबद्धता है। पुराणिक कथाएँ और स्थानीय रीति‑रिवाज मिलकर इसे एक जीवंत परंपरा बनाते हैं जो आधुनिक उद्योग और पारंपरिक शिल्प दोनों को धार्मिक तथा सामाजिक अर्थ देती है। जहां कोई समुदाय इसे पारंपरिक तिथि पर करता है, वहीं कई स्थानों पर व्यावहारिक कारणों से इसे दिवाली‑पर्यटन के बाद आयोजित कर सामूहिकता और सुविधानुसार अपनाया गया है। अंततः यह त्योहार यह याद दिलाता है कि निर्माण क्षमता और उसकी जिम्मेदारी केवल तकनीकी नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक विमर्श से भी जुड़ी हुई है।

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About G S Sachin

I am a passionate writer and researcher exploring the rich heritage of India’s festivals, temples, and spiritual traditions. Through my words, I strive to simplify complex rituals, uncover hidden meanings, and share timeless wisdom in a way that inspires curiosity and devotion. My writings blend storytelling with spirituality, helping readers connect with Hindu beliefs, yoga practices, and the cultural roots that continue to guide our lives today. When I’m not writing, I spend time visiting temples, reading scriptures, and engaging in conversations that deepen my understanding of India’s spiritual legacy. My goal is to make every article on Padmabuja.com a journey of discovery for the mind and soul.

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