नरक चतुर्दशी पर अभ्यंग स्नान का क्या है महत्व? जानें इसकी विधि
नरक चतुर्दशी, जो अधिकांश भारतीय परम्पराओं में दिवाली से एक दिन पहले मनाई जाती है, आत्म-परिशुद्धि और अंधकार पर विजय का प्रतीक मानी जाती है। पुराणिक आख्यानों में नरकासुर का वध — जिसे कई स्थानों पर भगवान कृष्ण ने संपादित किया — इसी तिथि से जोड़ा जाता है, इसलिए यह दिन छंद-रिवाजों और स्नान-विधियों के लिए विशेष माना जाता है। अनेक परिवारों में इस दिन का एक प्रमुख अंग है अभ्यंग स्नान: तेल से पूरा शरीर मालिश कर के स्नान करना। यह सिर्फ एक शारीरिक क्रिया नहीं, बल्कि मानसिक-आध्यात्मिक शुद्धि, रोग-निवारण और ऋतु-समायोजन का योग भी है। विभिन्न समुदायों और ग्रंथों में अभिप्रेत अर्थ और करने का तरीका अलग हो सकता है; यहाँ हम परम्परागत, आयुर्वेदिक और स्थानीय रीति-रिवाजों के संदर्भ देते हुए नरक चतुर्दशी पर अभ्यंग स्नान का महत्व और एक व्यवहारिक विधि समझा रहे हैं।
नरक चतुर्दशी पर अभ्यंग का सांस्कृतिक-आध्यात्मिक महत्व
- पुराणिक संदर्भ: पुराणों और लोककथाओं में नरकासुर का वध अज्ञान, अत्याचार और अधिष्ठानिक अंधकार पर विजय का प्रतीक है। कई पक्षों के अनुसार इस विजय के उपलक्ष्य में शुद्धिकरण के लिए विशेष स्नान और शुद्धि-संस्कार होते हैं।
- आध्यात्मिक अर्थ: तेल द्वारा किया गया अभ्यंग शरीर के साथ मन-मस्तिष्क को भी शांत करता है—इसे कई मतों में अन्दर के ‘नरक’ अर्थात् दोषों और बुराईयों का नाश करने वाली क्रिया माना जाता है।
- आयुर्वेदिक दृष्टि: आयुर्वेद में अभ्यंग को वाता दोष को शमन करने, रक्त-प्रवाह सुधारने और त्वचा-प्राणवायु संतुलित करने वाला बताया गया है। शीतकाल में, जैसे कार्तिक माह में, अभ्यंग का उपयोग विशेष रूप से लाभकारी माना जाता है।
- लोक-रन्ध्र और समाज: कई स्थानों पर नरक चतुर्दशी के दिन बच्चे/परिवार संकल्प लेकर सुबह स्नान करते हैं—यह सामुदायिक परम्पराओं और घर की सीमा में आत्म-नियमन का अवसर है।
कब करें — तिथि और समय
- नरक चतुर्दशी चंद्र कैलेंडर की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को आती है; पारंपरिक रूप से अधिकांश परिवार इसे अगले दिन के सूर्योदय से पहले स्नान करके मानते हैं।
- विभिन्न क्षेत्रीय परम्पराओं में समय का अन्तर हो सकता है—किसी जगह रात्रि में दीपों के साथ विशेष अनुष्ठान होते हैं, तो कहीं प्रातःकुजल-पूर्व स्नान पर ज़ोर दिया जाता है।
- यदि ज्योतिष/पंडित की सलाह ली जा रही हो तो तिथियों और मुहूर्तों के अनुसार अनुशासन करें; सामान्यतः सुबह के समय (सूर्योदय से पहले या ठीक उसके निकट) अभ्यंग-नहाना प्रचलित है।
अभ्यंग स्नान — सामग्री और तेल का चुनाव
- तेल का प्रकार: शीतकाल में तिल (तिल का तेल / तिल का घीयन) पारंपरिक और आयुर्वेदिक रूप से सर्वश्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि यह गर्मी और आधार देता है। ग्रीष्म में नारियल का तेल हल्का और ठंडी देता है। संवेदनशील त्वचा के लिए बेबी ऑयल या शुद्ध सरसों/खस के उपयोग में स्थानीय परम्परा हो सकती है।
- गर्म करना: तेल को हल्का गरम रखें—उबाल न आए; सामान्यतः शरीर के तापमान से कुछ ऊपर। हाथ पर डालकर पहले ताप जांच लें।
- अन्य सामग्री: सादे साबुन, हल्का उबटन (यदि परम्परा में हो), साफ तौलिया और सूखे कपड़े। घी का उपयोग भी कुछ परम्पराओं में किया जाता है।
विधि — चरण-दर-चरण (व्यावहारिक सुझाव)
- तैयारी: शांत और स्वच्छ स्थान चुनें। तेल गरम करके एक बाल्टी में रखें। कपड़े ऐसे चुनें जिन्हें तेल लग जाने पर धोया जा सके। यदि आप पूजा-अर्चना भी करना चाहें तो छोटा दीप और इच्छित मंत्र/भगवान के नाम के साथ व्यवस्था रखें।
- आरंभ: बैठकर या खड़े होकर हल्के-हाथ से माथे और सिर पर तेल लगाकर मालिश शुरू करें। सिर की मालिश से रक्त-संचार और मन-शांति होती है।
- बाहों और हाथों से: कंधों से लेकर बाहों की दिशा में लंबी स्ट्रोक करें; सामान्य आयुर्वेदिक अभ्यास के अनुसार हाथों की मालिश करते समय मुद्रा को ध्यान में रखें और अंगूठे व परिधि पर विशेष ध्यान दें।
- वक्ष और पेट: वक्ष पर बाहों के साथ हल्के वृत्ताकार दबाव से मालिश करें। पेट पर सामान्यतः घड़ी की दिशा में गोलाकार गति में मालिश करें—यह पाचन के लिए समर्थक माना जाता है। (गर्भवती महिलाएँ पेट के गहरे मसाज से बचें।)
- पीठ और नितम्ब: पीठ पर तेल डालकर ऊपर से नीचे और पक्षीय गति से मालिश करें। पीठ के निचले हिस्से और नितम्बों पर मध्यम दबाव लाभप्रद होता है।
- टांगें और पाँव: पैरों को घुटने से लेकर पाँव की ओर अथवा हृदय की ओर की दिशा में मालिश करें—शिराओं में सहायता के लिए अंगुलियों पर और तलवों पर विशेष ध्यान दें।
- समाप्ति व प्रतीक्षा: सामान्यतः 10–30 मिनट की हल्की मालिश के बाद तेल को कुछ समय त्वचा पर रहने दें ताकि अवशोषण हो जाए।
- स्नान: उसके बाद गुनगुने पानी से स्नान करें; ज़्यादा गर्म पानी त्वचा को सुखा सकता है। हल्के साबुन का उपयोग करें। पारंपरिक रूप से कुछ स्थानों पर स्नान के बाद हल्का तेल या उबटन बचा छोड़ दिया जाता है।
धार्मिक संकल्प और मंत्र
- विभिन्न परम्पराओं में व्यक्ति अपनी श्रद्धा के अनुसार भगवान कृष्ण, शिव, लक्ष्मी या घर-देवता का स्मरण करके तर्क-विमर्श करता है। सरल और सर्वमान्य सुझाव है कि अपने श्रद्धेय देव का नाम जपते हुए अभ्यंग करें—इससे क्रिया का मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक आयाम मजबूत होता है।
- किसी विशिष्ट मंत्र या मंत्र-क्रम का पालन स्थानीय रीति और परिवार-परम्परा के अनुसार करें।
विविधताएँ और क्षेत्रीय परंपराएँ
- कई दक्षिणी राज्यों में दिवाली से पूर्व “नरक चतुर्दशी” को “कोलणी / कोलाँ” जैसे नामों से मनाते हैं और स्थानीय तेल/उबटन पर जोर होता है।
- उत्तरी भारत में भी परम्परागत स्नान सुबह-जल्दी कर दीप और पूजा के साथ जुड़ा होता है।
- कई परिवारों में बच्चे को हल्का तेल से मालिश करने पर विशेष अर्थ दिया जाता है—यह “वृद्धि और रक्षा” का प्रतीक माना जाता है।
सावधानियाँ
- त्वचा पर खुला घाव हो तो अभ्यंग न करें या चिकित्सीय सलाह लें।
- मधुमेह, उच्च रक्तचाप या किसी गंभीर स्वास्थ्य समस्या में चिकित्सक की अनुमति जरूरी है।
- गर्भवती महिलाओं को पेट पर तीव्र मसाज से परहेज़ करना चाहिए और हल्का, चिकित्सीय मार्ग-दर्शन से ही अभ्यंग करना चाहिए।
- तेल बहुत गर्म न करें—जलने का खतरा होता है।
निष्कर्ष
नरक चतुर्दशी पर अभ्यंग स्नान एक ऐसी परम्परा है जो पुराणिक कथा, लोक-आस्था और आयुर्वेदिक स्वास्थ्य-सिद्धांत को जोड़ती है। विभिन्न सम्प्रदायों और क्षेत्रीय रीति-रिवाजों में अर्थ और विधि भिन्न हो सकती है; इसलिए अपने पारिवारिक और चिकित्सीय परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर विधि अपनाना उचित रहता है। शारीरिक रूप से यह त्वचा और परिसंचरण के लिए लाभदायक, मानसिक रूप से शांतिदायक और सांस्कृतिक रूप से आत्म-शुद्धि का एक प्रतीक है—जिसे श्रद्धा और विवेक दोनों के साथ किया जाना चाहिए।