माँ दुर्गा की विजय और महिषासुर मर्दिनी कथा

माँ दुर्गा की विजय और महिषासुर मर्दिनी की कथा भारतीय धार्मिक, साहित्यिक और लोकपरंपराओं में गहराई से जुड़ी हुई है। यह कथा विशेष रूप से देवी महात्म्य में विस्तृत रूप से मिलती है और नवरात्रि–विजयादशमी के पर्वचक्र से घनिष्ठ संबंध रखती है। कथा में महिषासुर, जो नाम से ही महिष (भैंस/भैस का रूप) से जुड़ा दैत्य है, रूप-परिवर्तन की क्षमता रखता था और उसने देवताओं तथा धर्मव्यवस्था को चुनौती दी। देवताओं ने अपनी-अपनी शक्ति देवी के रूप में समर्पित कर दी और देवी ने अनेक भुजाओं पर विभिन्न देवों के अस्त्र धारण कर महिषासुर का नाश किया। इस घटना का धार्मिक, दार्शनिक और सामाजिक स्तरों पर विवेचन मिलता है—कहीं इसे ब्रह्माण्डीय संतुलन की पुनर्स्थापना माना जाता है तो कहीं इतिहासकार एवं लोकविद् इसे सामुदायिक संघर्षों के प्रतीक के रूप में देखते हैं। नीचे इन स्रोतों, प्रतीकात्मक अर्थों, अनुष्ठान और क्षेत्रीय विविधताओं का तटस्थ और तथ्य-आधारित सार प्रस्तुत किया गया है।
साहित्यिक स्रोत और पारंपरिक विवरण
Devi Mahatmya (मार्कण्डेय पुराण का एक अंश) इस कथा का प्रमुख शास्त्रीय स्रोत है; यह भाग पारंपरिक रूप से 700 श्लोकों में प्रचलित है और कभी-कभी इसे दुर्गा सप्तशती या चंडी कहा जाता है। मार्कण्डेय पुराण के अध्यायों में देवी के विभिन्न रूपों और तीन प्रमुख युद्ध-परियों का वर्णन मिलता है, जिनमें से महिषासुर वध सबसे लोकप्रिय प्रसंगों में है। अन्य पुराणिक और अपौराणिक स्रोतों, लोकगीतों एवं क्षेत्रीय काव्यों में भी महिषासुर-देवी संवाद के कई रूप मिलते हैं, जो समय के साथ स्थानीय रीति–रिवाजों में ढल गए।
कथा का संक्षेप
- महिषासुर का उल्लेख एक अत्यन्त बलशाली दैत्य के रूप में होता है, जो देवताओं और ऋषियों पर अत्याचार कर संसार में असंतुलन फैलाता है।
- देवता अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र देवी को अर्पित करते हैं; देवी अनेक भुजाओं और दिव्य आयुधों सहित प्रकट होती हैं।
- महिषासुर से युद्ध चलता है जिसमें उसने अनेक रूप लिए—मानव-रूप, बाघ-रूप आदि—परन्तु देवी उसके प्रत्येक रूप का नाश करती हैं और अन्ततः उसे परास्त कर देती हैं।
प्रतीकात्मक और दार्शनिक पढ़ाइयाँ
- शाक्त परंपरा: माता दुर्गा को सर्वोच्च शक्ति माना जाता है—सृष्टि का स्रष्टा, परिवर्तक और संहारक। महिषासुर का वध शाक्त व्याख्या में धर्म-स्थापन और अहंकार के किस्म के विनाश का प्रतीक है।
- स्मार्त/वैदिक संदर्भ: कई स्मार्त और वैष्णव पढ़ावों में देवी को विष्णु या शिव की ऊर्जा (शक्ति) के रूप में देखा जाता है; यहाँ भी कथा देवता-शक्ति के सहयोग और संतुलन की बात कहती है।
- तान्त्रिक दृष्टि: तन्त्रग्रन्थों में देवी का जाप, चंडी पाठ और अनुष्ठानिक प्रयोग ब्रह्माण्डीय शक्तियों के सामंजस्य से जोड़ा जाता है; युद्ध को आंतरिक ऊर्जाओं के निवेश और नियंत्रित प्रयोग के रूप में पढ़ा जाता है।
- मानवशास्त्रीय/ऐतिहासिक व्याख्याएँ: कुछ इतिहासकार और लोकविद् महिषासुर-कथा को स्थानीय आदिवासी/जनजातीय विरोध या सांस्कृतिक टकराव के प्रतीक के रूप में भी देखते हैं; यह व्याख्या स्थानीय किंवदंतियों और मूर्तिकला के अध्ययन पर आधारित होती है।
आइकॉनोग्राफी और पौराणिक विवरण
परंपरागत चित्रों में देवी अनेक भुजाओं, शस्त्रों और देवों द्वारा दत्त वस्तुओं से सुसज्जित दर्शायी जाती हैं—त्रिशूल, चक्र, गदा, खड्ग आदि। वेशभूषा में उसका सिंह/वृषभ वाहक प्रमुख है। महिषासुर को अक्सर आधा मानव-आधा महिष रूप में दिखाया जाता है, जो देवी की विजय के समय उसके चरणों में गिरता है। ये घोषित रूप केवल वीरता का प्रदर्शन नहीं, बल्कि प्रतीकात्मक रूप से असुरात्मक आवृत्तियों (अहं, क्रोध, अज्ञान) के अंत का सूचक भी हैं।
अनुष्ठान, उत्सव और क्षेत्रीय विविधता
- नवरात्रि: शारदीय नवरात्रि नौ रातों तक चलने वाला अनुष्ठानचक्र है; दसवें दिन विजयादशमी मनाई जाती है। विजयादशमी सामान्यतः आश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी को पड़ती है।
- दुर्गा पूजा (पश्चिम बंगाल, असम आदि): प्रतिमा स्थापना, पूजा, आरती, चंडी पाठ और दशमी पर विसर्जन बहुधा सफल आयोजन के केंद्र होते हैं।
- गुजरात: नौ रातों तक गरबा-डांडिया नृत्य और समुदायिक उत्सव।
- दक्षिण भारत: नवरात्रि के दौरान कोलु/गोथमणि प्रदर्शन, शिला पूजा और कन्न्या पूजन जैसी प्रथाएँ दिखाई देती हैं।
- अन्य रीति: कन्न्या पूजन (अष्टमी/नवरात्रि), आयुध पूजा और सार्थक सार्वजनिक प्रदर्शन—क्षेत्र अनुसार रीतियाँ बदलती रहती हैं।
विविध व्याख्याओं के प्रति सम्मान
यह आवश्यक है कि कथा की व्याख्या करते समय धार्मिक और सामाजिक विविधताओं का सम्मान किया जाए। शैव, वैष्णव, शाक्त और स्मार्त परम्पराओं में देवी की भूमिका अलग- अलग रेखांकित की जाती है; इसी तरह लोक-परंपराएँ और आधुनिक ऐतिहासिक-पद्धतियाँ भी अलग दृष्टि देती हैं। तटस्थ पाठ में इन विभिन्नताओं का उल्लेख करने से समझ गहरी होती है और विवादों के स्थान पर संवाद संभव होता है।
निष्कर्ष
माँ दुर्गा और महिषासुर की कथा न केवल एक पौराणिक युद्ध का वृत्तांत है, बल्कि यह सामुदायिक पहचान, नैतिक आदर्श, आंतरिक मनोवैज्ञानिक संघर्ष और शक्ति के विविध आयामों का समन्वय भी प्रस्तुत करती है। नवरात्रि और विजयादशमी के अवसर पर जब जगत् देवी का स्मरण करता है, तो वह केवल ऐतिहासिक स्मृति नहीं बल्कि जीवन में संतुलन, करुणा और न्याय की एक जीवंत परंपरा की पुष्टि भी करता है। इस कथा का अध्ययन करते समय स्रोतों और परंपराओं की विविधता को मानते हुए संवेदनशीलता और तथ्यपरकता बनाए रखना उपयुक्त माना जाता है।