नवरात्रि में नौ रंगों का रहस्य क्या है?

नवरात्रि में नौ रंगों की प्रथा आज बहुत आम हो गई है: हर दिन एक विशेष रंग पहनना, घर को उसी रंग के फूलों और सजावट से संवारना, और सोशल‑मीडिया पर “कलर ऑफ द डे” के पोस्ट बनाना। पर यह प्रश्न सहज है — क्या इन रंगों का कोई शास्त्रीय आधार है, क्या हर एक रंग का अर्थ और सम्बन्ध किसी पुराणिक या तांत्रिक परंपरा से जुड़ा है, और आखिर यह विविधता हमें क्या बताती है? पारंपरिक ग्रन्थों जैसे Devi Mahatmya (दुर्गा सप्तशती) में नवरूपों का विस्तृत वर्णन मिलता है, पर रंगों का निश्चित विधान वहाँ नहीं मिलता। दूसरी ओर लोक-परंपराएँ, क्षेत्रीय रीति‑रिवाज़ और आधुनिक सोशल प्रैक्टिस ने रंगों को प्रतीकात्मक अर्थ दे दिए हैं। इस लेख में मैं उपलब्ध शास्त्रीय संदर्भों, क्षेत्रीय प्रथाओं और समकालीन अर्थायनों को अलग‑अलग रखकर स्पष्ट करने की कोशिश करूँगा कि नवरात्रि के नौ रंग किस तरह समझे जा सकते हैं — और किस हद तक वे अनिवार्य हैं या वैचारिक रूप से खुला मैदान छोड़ते हैं।
नौ का धार्मिक और सांस्कृतिक अर्थ
हिंदू परंपरा में ‘नव’ (नौ) की संख्यात्मक और प्रतीकात्मक महत्ता कई तरीकों से देखी गई है। नवरात्रि में यह नौ दिन देवी के नौ रूपों (नवदुर्गा) को समर्पित होते हैं — शैलपुत्री से लेकर सिद्धिदात्री तक। कुछ विचारों में नौ को ब्रह्मांड के नौ आयामों, नौ गुणों, अथवा नवग्रहों से जोड़ा जाता है। शाक्त साहित्य में शक्ति के विभेद और उसकी कर्मशील अवस्थाएँ नौ रूपों के माध्यम से प्रकट मानी जाती हैं। किन्तु यह ज़रूरी है कि शास्त्रीय ग्रन्थों में रंगों का एक सार्वभौमिक निर्देश कम ही मिलता है; रंग‑लगोलगान अधिकतर क्षेत्रीय लोकविश्वास, कलात्मक परम्पराओं और आधुनिक पोशाक‑रिवाज़ों से जुड़े हैं।
नवदुर्गा — नाम और संक्षिप्त अर्थ
- शैलपुत्री — देवी पार्वती के इस रूप को पर्वत की पुत्री कहा जाता है; जीवात्मा की मूल शक्ति का प्रतीक।
- ब्रह्मचारिणी — संयम और तप की प्रतिमूर्ति; गुरु‑शिष्य परंपरा से जुड़ी शुद्धता।
- चंद्रघंटा — युद्ध और समर्पण का रूप; शक्ति का सामंजस्यपूर्ण प्रयोग।
- कुश्मांडा — सृष्टि का रचनात्मक पहलू; ज्योति और ऊर्जा का विस्तार।
- स्कंदमाता — माँ का रूप; पालन‑पोषण और स्नेह।
- कात्यायनी — तीव्र सक्रिय शक्ति, धर्म की रक्षा का रूप।
- कालरात्रि — अघोर, भय‑निवारक और रूपांतरण की शक्ति।
- महागौरी — शुद्धता, शान्ति और सौम्यता।
- सिद्धिदात्री — सिद्धि देने वाली, लक्ष्य की प्राप्ति का चिन्ह।
नौ रंगों का सामान्य पैटर्न और उसकी उत्पत्ति
आजकी प्रथाओं में जो सबसे आम रंग‑सूची मिलती है, वह काफी हद तक आधुनिक और क्षेत्रीय परंपराओं का मिश्रण है। उदाहरण के तौर पर एक व्यापक रूप से प्रचलित सेट यह है: प्रथम‑पीला, दूसरा‑हरा, तीसरा‑ग्रे/रॉयल, चौथा‑नारंगी, पाँचवा‑सफेद, छठा‑लाल, सातवाँ‑काला/नीला (कालरात्रि के लिए), आठवाँ‑गुलाबी, नवाँ‑बैंगनी/परपीट। यह सूची कई भाजनों और सामूहिक आयोजनों में लोग आज अपनाते हैं।
ऐसा कोई एक शास्त्रीय आदेश उपलब्ध नहीं है जो हर समुदाय पर लागू हो। पारम्परिक ग्रन्थों जैसे Devi Mahatmya दुर्गा के रूपों का वर्णन करते हैं पर प्रत्येक रूप के लिए रंग ना तो औपचारिक रूप से निर्धारित किया है और ना ही तिथियों के साथ। इसलिए आधुनिक रंग‑दिन प्रस्तुति को हम एक लोक‑धार्मिक और सांस्कृतिक निर्माण मान सकते हैं, जिसका आधार मनोवैज्ञानिक प्रतीक, ऐस्थेटिक प्राथमिकताएँ, और स्थानीय रीति‑रिवाज़ हैं।
रंगों के प्रतीकात्मक अर्थ—कुछ आम व्याख्याएँ
- लाल / केसरिया: शक्ति, उत्साह, उत्सव और सक्रियता।
- सफेद: शुद्धता, शान्ति, त्याग।
- हरा: वृद्धि, नवीनता, उर्वरता।
- काला / गहरा नीला: विनाश‑रूप, रूपांतरण; कालरात्रि की अघोर शक्ति के अनुरूप।
- पीला / सुनहरा: सुख, समृद्धि, ज्ञान का प्रकाश।
- गुलाबी, बैंगनी: सौम्यता, दिव्यता और आध्यात्मिक सिद्धि के सूचक।
इन व्याख्याओं को तांत्रिक, शाक्त या लोकमान्यताओं में अलग‑अलग तरीके से समझाया जाता है। उदाहरण के लिए तांत्रिक परंपराएँ रंगों को चक्रों या तत्वों से जोड़कर पढ़ती हैं, जबकि लोकधर्म ने उन्हें त्योहारिक पहचान और सामाजिक समरसता के साधन के रूप में अपनाया है।
क्षेत्रीय विविधता और आधुनिक प्रभाव
नवाडेजे (गुजरात), बंगाल, तमिलनाडु और हिंदी‑पट्टी में नवरात्रि के स्वरूप और रिति‑रिवाज़ में अंतर है। गुजरात में ‘गरबा’ के साथ रंग‑दिन का चलन विशेष रूप से लोकप्रिय है; पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा के रंग और अलंकरण अधिक मूर्तिपूजा केन्द्रित होते हैं। 21वीं सदी में सोशल मीडिया, फैशन उद्योग और सामुदायिक आयोजन‑समिति ने भी रंगों के चयन को प्रभावित किया है—कई बार यह एक स्वागतयोग्य सामूहिक पहचान का माध्यम बन जाता है, जबकि शास्त्रीय मेल‑जोल कम प्रभावी रहता है।
निष्कर्ष — रंगों का रहस्य और उनकी सीमा
नवरात्रि के नौ रंगों का “रहस्य” कोई एक ठोस शास्त्रीय आदेश नहीं दर्शाता; बल्कि यह एक जीवित मिश्रण है—पुराणिक रूपवैभव, क्षेत्रीय लोकपरंपराएँ, तांत्रिक व्याख्याएँ और समकालीन सामाजिक व्यवहारों का। रंगों का अर्थ भक्त को साधना के मनोविज्ञान, समुदाय की पहचान और देवी के विभिन्न रूपों की स्मृति दोनों देता है। इसी कारण, रंगों को सख्ती से अनिवार्य समझने की बजाय उन्हें एक सहायक उपकरण के रूप में देखा जा सकता है: वे पूजा‑अभिव्यक्ति को समृद्ध करते हैं, पर देवी‑भक्ति का मूल शास्त्रीय आधार श्रद्धा और कर्म में निहित रहता है। अंततः, नवरात्रि का अर्थ विविधताओं में एकता खोजने में है—और रंग उसी विविधता का जीवंत, दृश्य रूप हैं।