नवरात्रि में देवी की मूर्ति मिट्टी की क्यों होती है श्रेष्ठ?

नवरात्रि के दौरान देवी की मूर्तियाँ मिट्टी की क्यों बनाई जाती हैं — यह सवाल धार्मिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय और आर्थिक कारणों का संयोजन है। पारंपरिक व्यवहार में मिट्टी की प्रतिमाएँ अस्थायी उत्सव-आकृति और देवी की सजीव अनुभूति दोनों से जुड़ी हैं: मिट्टी का पदार्थ पृथ्वी से आता है और वापस पृथ्वी में मिलने का चक्र दर्शाता है। धार्मिक शास्त्र और लोककथाएँ देवी को प्रकृति-स्वरूप मानती हैं, इसलिए मिट्टी की मूर्ति में माँ का अवतरण सहज प्रतीत होता है। साथ ही शिल्पी-परंपराएँ, स्थानीय कुम्हारों की जीविका, तथा सामुदायिक पूजा की अर्थव्यवस्था का भी इसमें बड़ा हाथ है। पिछले कुछ दशकों में प्लास्टर ऑफ पॅरिस और रसायनिक रंगों के प्रयोग ने नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव दिखाए हैं — इसलिए मिट्टी की मूर्तियों को फिर से प्रोत्साहन देने का दायरा बढ़ा है। नीचे धार्मिक-वैचारिक, प्रवृत्तिगत और व्यवहारिक कारण विस्तार से दिए जा रहे हैं, साथ ही वर्तमान चुनौतियाँ और वैकल्पिक प्रथाएँ भी समझाई गई हैं।
धार्मिक व दार्शनिक कारण
देवी के रूप और प्रकृति: शास्त्रीय और लोकपरंपराओं में देवी को प्रकृति (प्रकृति/प्रकृति-शक्ति) के रूप में देखा जाता है। मिट्टी, जल और अन्य प्राकृतिक तत्वों से बनी प्रतिमा यह बोध कराती है कि देवी उसी ब्रह्माण्डीय चक्र की भागी हैं जिसमें जन्म-स्थिरता-विनाश आते हैं। कई कथाएँ और लोकश्रद्धाएँ देवी को पृथ्वी से जुड़ा मानती हैं; इस दृष्टि से मिट्टी का उपयोग उपयुक्त प्रतीत होता है।
अस्थायी उत्सव-आकृति और भक्ति: नवरात्रि का मूल स्वर अस्थायी सामुदायिक आराधना का है — नौ दिनों की तीर्थयात्रा, भक्ति और प्रदर्शन का काल। कुछ आगामिक और शिल्पशास्त्रीय रचनाएँ विभिन्न सामग्रियों के लिए नियम बताती हैं; कुछ परंपराएँ त्यौहार-प्रतिमाओं के लिए मिट्टी की सलाह देती हैं ताकि उत्सव के बाद प्रतिमा को विसर्जित या पृथ्वी में लौटाया जा सके। इस दृष्टिकोण में मूर्ति केवल माध्यम होते हैं जिनमें भक्त का मन और आस्था प्राण-प्रतिष्ठा द्वारा जुड़ती है।
शास्त्रीय और अनुष्ठानिक प्रमाण
शिल्पशास्त्र और आगम ग्रन्थ विविध सामग्रियों का उल्लेख करते हैं — धातु, संगमरमर, पत्थर, लकड़ी और मिट्टी। अनेक आगमों और ग्रन्थों में स्थायी मंदिर-प्रतिमाओं के लिए कठोर नियम मिलते हैं, जबकि पर्व-उत्सवों की अस्थायी प्रतिमाओं के लिए सरल सामग्री जैसे मिट्टी का प्रयोग स्वीकार्य और व्यवहारिक माना गया है। प्राण प्रतिष्ठा का संस्कार किसी भी सामग्री से की जा सकती है, परंतु मिट्टी के साथ यह अनुभव ‘पुनः पृथ्वी में मिल जाने’ के रूपक से जुड़ जाता है। विभिन्न सम्प्रदायों (शाक्त, वैष्णव, स्मार्त आदि) में इस बात की व्याख्याएँ अलग‑अलग हो सकती हैं; कुछ सम्प्रदाय स्थायी मंदिर मूर्ति को ही प्राथमिकता देते हैं, जबकि सामुदायिक नवरात्रियों में मिट्टी की प्रतिमाएँ प्रचलित रहीं हैं।
व्यावहारिक और सामाजिक कारण
- स्थानीय संसाधन और शिल्पकला: मिट्टी स्थानीय स्तर पर उपलब्ध रहती है और स्थानीय कुम्हार‑शिल्पियों की परंपरा से जुड़ी रहती है। इससे समुदायों को रोजगार मिलता है और पारंपरिक शिल्प बचता है।
- लागत और वितरण: मिट्टी की प्रतिमाएँ सस्ती बनती हैं, जिससे छोटे‑छोटे पड़ाव और मोहल्लों में भी व्यापक पूजा संभव होती है।
- परिवहन और स्थापना: हल्की होने के कारण इनकी तैनाती व विसर्जन सरल होता है — बड़े‑बड़े पंडाल और सामुदायिक आयोजन संभव होते हैं।
पर्यावरणीय दृष्टि और आधुनिक चिंताएँ
हाल के दशकों में प्लास्टर ऑफ पॅरिस (PoP), रेज़िन व रासायनिक रंगों के व्यापक प्रयोग ने नदियों व जलाशयों में प्रदूषण बढ़ाया। पर्यावरणविद और धर्मशास्त्री दोनों ने यह इंगित किया है कि तेज‑सुखने वाली रसायनिक परतें जल में घुल कर मृदा व जल जीवों के लिए हानिकारक हैं। मिट्टी की प्रतिमाएँ जीवाणु‑विहीन नहीं हैं, परन्तु प्राकृतिक मिट्टी जीव में मिलकर नष्ट हो जाती है और पुनः जैविक चक्र का हिस्सा बन जाती है। कई राज्य सरकारें और स्थानीय संगठन प्राकृतिक रंग, कच्ची मिट्टी और पारिस्थितिक रूप से सुरक्षित विसर्जन प्रबंध सुझा रहे हैं।
सामुदायिक रूपांतरण और नवाचार
कुछ समुदाय मिट्टी के उपयोग की पारंपरिक परंपराओं को नए रूप दे रहे हैं:
- कुम्हार‑साझेदारी: स्थानीय माटी और पारंपरिक विधियों को बढ़ावा देने के लिये शिल्पियों को प्रशिक्षण और मार्केटिंग सहायता।
- स्थानिक विसर्जन टैंकों का निर्माण: पंडालों में पानी के सीमित, नियंत्रित टैंक बनाकर रसायनिक प्रदूषण रोका जा रहा है।
- प्राकृतिक रंग और बायोडिग्रेडेबल पॉलिश: मिट्टी‑आधारित मेरीनेशन और पौधों‑आधारित रंगों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है।
- मिट्टी की पुनरुपयोग‑योजना: विसर्जन के बाद मृदा को फिल्टर कर कृषि/हरित क्षेत्रों में लौटाने के प्रयत्न।
टकराहटें और वैचारिक बहस
नवरात्रि‑सम्बन्धी प्रथाओं में मतभेद हैं। कुछ मंदिर‑समुदाय स्थायी धातु या पत्थर की मूर्तियों को अधिक पवित्र मानते हैं और स्नेह के साथ दीर्घकालिक पूजन करते हैं; सामाजिक‑उत्सव के रूप में सामुदायिक नवरात्रियों में मिट्टी की प्रतिमाएँ पहले से प्रचलित रहीं। आधुनिक शहरी संदर्भ में सुविधाओं, कला‑रुचि और आय के कारण PoP प्रतिमाएँ भी बढ़ीं, परन्तु पर्यावरणीय और सांस्कृतिक चिंताओं ने फिर मिट्टी की ओर लौटाया है। इस बहस में दोनों पक्षों के तर्क वैध हैं — स्थायित्व और परंपरा, तथा पारिस्थितिकता और सामुदायिक न्याय — और स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार निर्णय लिया जाना चाहिए।
निष्कर्ष—एक समतुल्य दृष्टिकोण
मिट्टी की मूर्तियाँ नवरात्रि के पारंपरिक अर्थ, अनुष्ठानिक सादगी और पारिस्थितिक जिम्मेदारी का प्रतीक हैं। शास्त्रों और लोकविश्वासों की विविधता को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि मिट्टी का प्रयोग न केवल धार्मिक रूपक देता है, बल्कि सामाजिक और पर्यावरणीय लाभ भी प्रदान करता है। जहाँ स्थायी मूर्तियों की आवश्यकता और परंपरा है, वहाँ वे रखी जा सकती हैं; वहीं सार्वजनिक उत्सवों में मिट्टी और प्राकृतिक रंगों को प्राथमिकता दे कर नवरात्रि‑उत्सव को अधिक संवेदनशील व टिकाऊ बनाया जा सकता है।