क्यों कहा जाता है नवरात्रि को आत्मशक्ति जगाने का पर्व?

नवरात्रि को पारंपरिक और समकालीन दोनों परिप्रेक्ष्यों में अक्सर ‘आत्मशक्ति जगाने का पर्व’ कहा जाता है। शारदीय नवरात्रि सामान्यतः आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी (या दशमी के साथ) तक मनाई जाती है; चैत्र नवरात्रि चैत्र मास में आती है। बाहर की देवी–पूजा और आयोजनों के साथ-साथ यह समय भीतर की साधना और आत्मपरीक्षण का भी संकेत देता है। देवी को जगत् की सक्रिय ऊर्जा — शक्ति — के रूप में देखा गया है; नवरात्रि के नौ दिन उन विविध उर्जा के स्वरूपों, आचरणों और मानसिक अवस्थाओं पर ध्यान केंद्रित करने का आवाहन करते हैं। वैचारिक रूप से Śākta, tantric, योगिक और भक्तपरम्पराओं में इसका अर्थ भिन्न-भिन्न ढंग से समझाया गया है, लेकिन एक सामान्य धागा यह है कि नवरात्रि कर्म, चेतना और प्रयास के मेल से आत्म-परिवर्तन की अवधि है।
क्या अर्थ है ‘आत्मशक्ति जगाना’?
यह वाक्यांश बताता है कि नवरात्रि का महत्त्व केवल देवी की बाह्य पूजा तक सीमित नहीं है, बल्कि व्यक्तित्व के भीतर छिपी सक्रिय क्षमता (शक्ति) को पहचानने और उसे जागृत करने से भी जुड़ा है। कई पारंपरिक सूत्रों में ‘शक्ति’ को सृष्टि-उत्पादन, जीव-उद्गमन और मनोवैज्ञानिक परिवर्तन की मूल शक्ति माना गया है। योगिक-तांत्रिक दृष्टि कहती है कि शरीर में कुंडलिनी नामक सूक्ष्म ऊर्ज़ा मुमुक्षु के प्रयास से जाग्रत होकर चक्रों के माध्यम से ऊपर उठती है; नवरात्रि जैसी नियंत्रित साधना-प्रक्रिया इसे दिक-निर्देश प्रदान कर सकती है। भक्तपरंपराएं यह भी बताती हैं कि देवी का स्मरण और भक्ति हठ-योग, नैतिक अनुशासन और जप से संपर्क जोड़कर ‘आत्मशक्ति’ को स्फुट करता है — यानी मनोवैज्ञानिक दृढ़ता, नैतिक ऊर्जा और सहनशीलता बढ़ती है।
देवी के नौ रूप और आंतरिक आयाम
नवरात्रि में नवरूपों (नवदुर्गा) का स्मरण होता है — शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री। परंपरागत सूची सर्वत्र एक सी नहीं होती, पर व्यापक रूप से यही नाम प्रचलित हैं। इन्हें व्यक्तिगत आचरण, मनोवृत्ति और मानसिक अवस्थाओं के प्रतिरूप भी माना जाता है:
- शैलपुत्री — स्थिरता, मूलाधार-संरचना और आधार; आरम्भिक अनुशासन।
- ब्रह्मचारिणी — तप, संयम और निरन्तर अभ्यास।
- चंद्रघंटा — साहस, भावनात्मक संतुलन और सुमधुरता।
- कुष्माण्डा — सृजनात्मक शक्ति और सकारात्मक आशा।
- स्कंदमाता — मातृत्व, पोषण और सहानुभूति।
- कात्यायनी — निर्णायक साहस और नैतिक दृढ़ता।
- कालरात्रि — भय-कर्मों का निवारण और अभयता।
- महागौरी — शुद्धता, क्षमाशीलता और प्रकाशमान विवेक।
- सिद्धिदात्री — लक्ष्य–सिद्धि, अंतर्ज्ञान और पूर्णता।
इन रूपों को भीतर के अलग-अलग ‘चरण’ या गुणों से जोड़कर साधक न केवल श्रद्धा प्रकट करता है बल्कि अपनी मानसिक-नैतिक रूपरेखा बदलने का प्रयत्न भी करता है — यही आत्मशक्ति का जागरण माना जा सकता है।
साहित्यिक और शास्त्रीय आधार
देवी महात्म्य (जिसे दुर्गा सप्तशती या चंडी भी कहा जाता है) मार्कण्डेय पुराण के एक भाग में आता है और लगभग 700 श्लोकों का ग्रंथ है; यह शारदीय नवरात्रियों में प्रमुखतया पाठ किया जाता है। इसमें देवी के युद्ध, रूप और संसार के उद्धार के दृष्ठांत हैं, जिनका उद्देश्य न केवल देवी-पूजा बल्कि अहंकार-रक्षा, विवेक और धर्म की पुनरुत्थान कथा कहना है। कुछ तांत्रिक ग्रंथ और योग-सूत्र कुंडलिनी व चक्र-संबंधी तकनीकों का उल्लेख करते हैं; ये बताते हैं कि व्यवस्थित साधना, शुद्ध आहार तथा मनोवैज्ञानिक अनुशासन से भीतर की उर्जा का क्रमबद्ध विकास संभव है। गीता के टीकाकारों ने भी आंतरिक ईश्वर-शक्ति और भक्तिगुणों को आत्म-साक्षात्कार के साधनों के रूप में व्याख्यायित किया है — प्रवृत्तियाँ भिन्न हैं पर आत्मशक्ति के जागरण का लक्ष्य साझा दिखता है।
अनुष्ठान, साधना और मनोवैज्ञानिक असर
नवरात्रि के दौरान होने वाले प्रचलित अनुष्ठान और साधनात्मक उपायों का आंतरिक असर भी आत्मशक्ति के जागरण से जुड़ा कहा जाता है:
- घटस्थापन/कलशस्थापन (प्रतिपदा) — साधना आरम्भ का प्रतीक, मन में नवीनीकरण का इरादा स्थापित करना।
- व्रत और संयम — आहार-विहार का नियंत्रण आत्म-नियमन और मानसिक स्पष्टता लाता है।
- जप-पाठ और भजन — आवृत्ति (repetition) मन की प्रक्रियाएँ संकेंद्रित करती है और ध्यान की क्षमता बढ़ाती है।
- कीर्तन, हवन और साधना — सामूहिक अनुष्ठान सामाजिक समर्थन देते हैं तथा अनुष्ठानिक वातावरण में मनोवैज्ञानिक रूप से बदलाव आते हैं।
- ध्यान और मौन साधना — भीतर के प्रतिरूपों को पहचानने और परिवर्तन के लिए विशेष रूप से उपयोगी।
इन गतिविधियों का संयोजन आंतरिक अनुशासन, धैर्य और ध्यान-क्षमता में वृद्धि करता है — यही रोजमर्रा की भाषा में ‘आत्मशक्ति जागरण’ है।
सांस्कृतिक और ऋतुकालीन आयाम
नवरात्रि शरद ऋतु के आरम्भ से जुड़ी है; फसलों के कटने और मौसम बदलने के समय मनोवैज्ञानिक और सामूहिक रीति-रिवाजों में स्वाभाविक बदलाव आता है। सामुदायिक उत्सव, नृत्य (गरबा, डांडिया),और मिथकीय कथाओं का सामूहिक स्मरण लोगों को नई ऊर्जा और आशा का अनुभव कराते हैं। क्षेत्रीय विविधताओं में—पश्चिम बंगाल में दुर्गापूजा, गुजरात में गरबा, उत्तरी भारत में साधारण नवरात्र व्रत—सबमें एक संगत धारणा रहती है: यह समय न केवल देवी की जय-गाथा सुनाने का है, बल्कि समाज और व्यक्ति दोनों के लिए नव-आरम्भ और पुनर्संयोजन का है।
निष्कर्ष
नवरात्रि को ‘आत्मशक्ति जगाने का पर्व’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह बाह्य पूजा के साथ-साथ भीतर की सक्रिय, नैतिक और मानसिक क्षमता को पहचानने, अनुशासित करने और विकसित करने का समय है। शास्त्रीय कथाएँ, तांत्रिक-योगिक प्रथाएँ और लोक-रीतियाँ सभी अलग भाषाओं में यही सुझाव देती हैं: यदि श्रद्धा, अनुशासन और साधना एकत्रित हो तो व्यक्ति में छिपी शक्ति जाग्रत होकर व्यवहारिक और आध्यात्मिक परिवर्तन ला सकती है। विभिन्न परम्पराएँ इस प्रक्रिया को अलग- अलग रूप देती हैं; सूक्ष्म अंतर होते हुए भी साझा उद्देश्य वही है—एक व्यवस्थित उत्सव-चक्र के माध्यम से आत्म-परिवर्तन और जीवन में नई शक्ति का आविर्भाव।