क्या आप जानते हैं नवमी के दिन कन्या पूजन क्यों होता है?

नवमी के दिन कन्या पूजन का प्रश्न धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर अक्सर पूछा जाता है। साधारण दृष्टि से यह पूजा नवरात्रि के नौ दिवसीय पर्व के अंत की ओर आती है, जब देवी के नौ रूपों (नवदुर्गा) की आराधना संपन्न होती है। पर इस प्रथा के पीछे कई परतें हैं: एक आध्यात्मिक तर्क जो नारी-शक्ति (शक्ति) की उपासना को केन्द्र में रखता है; एक मिथकीय तर्क जो दुर्गा-महिषासुर वध और विजय के चक्र से जुड़ा है; और एक सामाजिक-नैतिक तर्क जो कन्या-सम्मान, दान और समाज की देखभाल पर बल देता है। अलग-अलग क्षेत्र और सम्प्रदाय—शाक्त, वैष्णव, स्मार्त या स्थानीय लोकपरंपराएँ—इस कर्म को अलग समय और तरीके से मनाते हैं। इस लेख में हम शास्त्रीय संदर्भ, तीर्थ-मिथक, रीति-रिवाज़ और समकालीन सामाजिक अर्थ को मिलाकर यह समझने की कोशिश करेंगे कि क्यों कई स्थानों पर नवमी के दिन कन्या पूजन विशेष माना जाता है।
कन्या पूजन: परंपरा का सार
कन्या पूजन का मूल विचार यह है कि बालिका (कन्या) देवी के रूप में पूजनी है। इसे केवल एक सामाजिक परोपकार नहीं माना जाता, बल्कि पवित्र दर्शन के रूप में देखा जाता है: जीवित देवी की भाँति कन्या को आमन्त्रण देकर भोजन, आशीर्वाद और उपहार दिए जाते हैं। यह अभ्यास कई स्तरों पर काम करता है — धार्मिक निष्ठा, स्त्रीत्व की महत्ता का प्रतीक और बालिकाओं के लिए सामाजिक सुरक्षा एवं सम्मान का माध्यम।
नवमी क्यों? — तर्क और प्रतीक
- नवदुर्गा और पूर्णता: नवरात्रि नौ दिनों का चक्र है; नवमी नौवां दिन है और इसलिए नवरूपों की आराधना की समापन-भूमि माना जाता है। अंकशास्त्र में भी ‘नौ’ का विशेष प्रतीकात्मक स्थान है—यह शक्ति के नौं स्वरूपों की पूर्णता दर्शाता है।
- युद्ध-उपरान्त रूपक: पुराणिक कथा में देवी का महिषासुर वध विजय की परिभाषा है, जिसकी परिणति दशमी (विजयादशमी) को मनाई जाती है। नौवे दिन कई समुदायों में देवी को सम्मानपूर्वक भोजन कराकर, उनकी सेवा कर के ‘अंतिम सम्मान’ दिया जाता है, और इससे जुड़ा उत्सव नवमी पर होता है।
- सांधिकाल और Sandhi Puja: कुछ परम्पराओं में अष्टमी और नवमी के बीच का समय (संधि) अत्यंत पवित्र माना जाता है—इसी समय पर विशेष पूजा (संधि पूजा) होती है और उसी के बाद कन्या पूजन किया जाता है।
शास्त्रीय व ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
कन्या पूजन का आदिम स्रोत सीधे कोई एक वेदिक सूत्र नहीं है; यह कई परम्पराओं के मिश्रण से बनकर आया है। देवी महात्म्य (मार्कण्डेय पुराण का भाग) में देवी की आराधना और उनकी विभिन्न रूपरेखाएँ विस्तृत हैं, और यह ग्रंथ नवरात्रियों के धर्मशास्त्रीय आधार के रूप में कई समुदायों में उद्धृत होता है। शाक्त और तांत्रिक ग्रंथों में कुमारि-पूजा (कुमारीपूजा) का व्यवहार और जीवित देवी की संस्था का उल्लेख मिलता है — नेपाल में आज भी ‘कुमारी’ की परम्परा जीवित है। मध्यकालीन और स्थानीय लोकाचारों ने बालिका-पूजा को घरेलू और सामुदायिक कार्यक्रमों के रूप में विकसित किया, जहाँ पवित्रता, सेवा और दान का समन्वय होता है।
आचरण — विधि और प्रतीकात्मक अनुष्ठान
- शुद्धि और आमंत्रण: कन्याओं का स्नान कराकर साफ कपड़े पहनाए जाते हैं; उन्हें घर में देवी के समक्ष आमंत्रित किया जाता है।
- पूजा और अर्घ्य: बैठाकर पाद्य अर्पण, अक्षत (चावल), रोली/कुमकुम, चिकना (नारियल) तथा फूल चढ़ाए जाते हैं।
- भोजन और प्रसाद: पारंपरिक व्यंजन—खिचड़ी, पूरी, हलवा, मिठाइयाँ—कन्याओं को खिलाए जाते हैं।
- दक्षिणा और उपहार: माता-पिता या समाज की ओर से धन, वस्त्र या उपहार दिए जाते हैं; यह दान उन बालिकाओं के कल्याण के लिए भी माना जाता है।
- पठन-पाठन: कई परिवारों में इस अवसर पर दुर्गा सप्तशती या अन्य देवी स्तोत्रों का पाठ होता है — यह पारंपरिक आध्यात्मिक सन्दर्भ जोड़ता है।
क्षेत्रीय विविधता और व्याख्याएँ
कन्या पूजन का समय और ढंग भिन्न-भिन्न स्थानों पर बदलता है। पश्चिम भारत में (गुजरात, महाराष्ट्र) नवरात्रि के अंत में, अक्सर नवमी पर कन्या पूजन देखा जाता है; बंगाल, उड़ीसा और कुछ पूर्वी भागों में अष्टमी की संधि (Sandhi Puja) और उसी दिन कुमारी पूजा अधिक प्रचलित है। नेपाल में कुमारी की जानी-पहचानी जीवित परंपरा है जिसका तात्पर्य देवी-भक्त का सार्वजनिक और राजनैतिक स्थान भी है। वैचारिक रूप से, स्मार्त और वैष्णव परिवारों में भी यह रीत अपनाई जाती है परन्तु वैष्णव व्याख्याएँ इसे भगवद्भक्ति की नीति के अनुरूप समझाती हैं—ईश्वर को जीवित रूप में देखने की साधना।
आधुनिक अर्थ और सामाजिक प्रासंगिकता
समकालीन संदर्भ में कन्या पूजन सिर्फ धार्मिक कृत्य नहीं रह गया; यह बालिका शिक्षा, उनकी सामाजिक सुरक्षा और लैंगिक सम्मान का प्रतीक भी बन गया है। कई सभाओं में इस अवसर का इस्तेमाल लड़कियों के पक्ष में सामाजिक संदेश देने, अनाथालयों या कमजोर वर्ग की लड़कियों को सहायता पहुँचाने के लिए किया जाता है। इस तरह पुरातन धार्मिक प्रतीक और आधुनिक सामाजिक चेतना का संगम दिखाई देता है।
निष्कर्ष
संक्षेप में, नवमी के दिन कन्या पूजन के पीछे एकमात्र कारण नहीं बल्कि अनेक किनारे हैं—शास्त्रीय व पुराणिक परिप्रेक्ष्य, शक्ति-समाप्ति का प्रतीक, सांधिकालिक अनुष्ठान और समाजसेवी भावना। विभिन्न सम्प्रदाय और क्षेत्र अलग-अलग तर्क देते हैं और अपने रीति-रिवाज़ बनाए रखते हैं। इसलिए अच्छा है कि इस परंपरा को बहुआयामी रूप में देखा जाए: यह देवी के प्रति श्रद्धा का अनुष्ठान भी है और समाज में कन्याओं के मान, सुरक्षा और सम्मान का विवेकपूर्ण प्रदर्शन भी।